Saturday, July 11, 2009

दो दिल कुछ कह रहे हैं...सुनिए तो!


ओबामा – कौन कहता है कि हम देखते हैं...हम तो उनकी इक अदा पर आह भरते हैं...

सार्कोजी – तुमसे बढ़ कर दुनिया में ना देखा कोई और...

ओबामा – लंदन देखा, पैरिस देखा और देखा जापान...
सारे जग में कोई नहीं है तुझ सा मेरी जान...

सार्कोजी – तुम आ गए हो...नूर आ गया है...

ओबामा – देखो जरा उनका मुड़ना जुल्म ढ़हा गया

सार्कोजी – बिखरी जुल्फें हैं कि घनघोर घटा घिर आई है

ओबामा – एक बार जो मुड़कर देख लें वो...

सार्कोजी – कसम उड़ान झल्ले की हम तो बिन मारे ही मर जाएंगे।

ओबामा – इस नीरस मीटिंग की सारी थकान दूर हो गई।

सार्कोजी – इस ब्राजीलियन बला के सामने तो इटली की सारी रंगीनियां फीकी पड़ गई हैं।

ओबामा – सार्कोजी साहब एक शेर अर्ज़ करें?

सार्कोजी – मार ही डालोगे...

ओबामा – मेरे पास मेरे हबीब आ, जरा और दिल के करीब आ
तुझे धड़कनों में उतार लूं कि बिछ़़ड़ने का कोई डर ना हो...

सार्कोजी – ले चलूं तुझे इस दुनिया से कहीं दूर... जहां तेरे मेरे सिवा तीसरा कोई और ना हो...

ओबामा - देखिए जनाब! अद्भुत् नजारा देखिए...चांद दिन में ही ज़मीं पर उतर आया...

सार्कोजी - चांद नहीं मिस्टर, परियों की शहजादी खुद उतर आई है।

ओबामा – अरे छोड़िए जनाब परियां तो बच्चों की कहानी में हुआ करती हैं।

सार्कोजी – तो फिर इस बला की खूबसूरती को क्या कहा जाए?

ओबामा – वो छोड़िए पहले जरा एक फोटो तो करा ली जाए साथ में।

सार्कोजी – हां हां क्यों नहीं, भला कौन नहीं चाहेगा इनका साथ।

ओबामा – तो फिर देरी किस बात की है सार्कोजी – अरे जरा संभल कर! अंतर्राष्ट्रीय मीडिया यहां मौजूद है

ओबामा – मीडिया को भी तो चाहिए कुछ मसालेदार...

सार्कोजी – तो फिर दिल खोल कर करें चक्षु स्नान... गुस्ताखी माफ!

Friday, July 10, 2009

राग मल्हार...


आज सुबह से ही मौसम कुछ खुशगवार लग रहा था। भगवान भास्कर बादलों की ओट ले ले कर आंख मिचौली खेल रहे थे। ठंडी हवा तन मन को शीतल किए जा रही थी। सावन लगने के बाद यह पहली सुबह थी जो सावन की सी लग रही थी। सावन हमारे कवियों, फिल्मकारों, और संगीतकारों के लिए बड़ा ही प्रेरणास्पद विषय रह है। सावन लगते ही प्रकृति भी मानो संवरने लगती है। घास हरी होने लगती है तो पेड़ों पर नई कोंपलें आने लगती हैं। मंद मंद शीतल पवन ऐसे बहती है कि उसके साथ मन मस्तिष्क भी बहता ही चला जाता है। मोर पपीहे गुनगुनाने लगते हैं तो कोयल की मधुर कूक भी गूंजने लगती है। समूचा वातावरण संगीतमय, हरा-भरा और ताजगी देने वाला हो जाता है। कुदरत यदि कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो और ऊपर से रिमझिम बरसात हो तो क्या कहने। आज की सुबह कुछ ऐसा ही नजारा पेश कर रही थी। सौभाग्य से आज बस में सीट मिल गई थी वह भी खिड़की के साथ। मंद- मंद बहती हवा बरसते बादलों के साथ मिलकर हल्की बौछारों से बदन को भिगोती हुई मुझे अंदर तक भिगो रही थी। खिड़की से बाहर झांक कर देखा तो बरसात की बूंदें सड़क पर मोती बुन रही थी। बाइक वालों ने फ्लाई ओवर की शरण ली तो कारों के एसी रोजाना की तरह चल रहे थे। न जाने क्यों मगर ये बरसात रिक्शा वालों को तर बतर न कर पाई। शायद उनके लिए इसके मायने केवल इतने ही हों कि आज उन्हें तपती धूप में पैडल मारने से थोड़ा राहत मिलेगी। कोई ऑफिस पहुंचने के चक्कर में इस बारिश से बचता नजर आया तो कोई प्रेमी युगल सावन के पहले बादल से खुद को सराबोर करने का मौका ना छोड़ते हुए नजर आया। तो वहीं कोई कोई युगल एक ही छाते में ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’ की तर्ज पर मतवाली चाल चलता दिखा। ऐसे में भला कौन सहृदय होगा जिसके हृदय का कंपन्न तेज ना हो...मस्तिष्क में अनायास ही मेघदूत की यक्षिणी और अपनी प्रेयसी दोनों साथ साथ प्रवेश कर गई। यक्षिणी के साथ प्रेयसी का आना इसलिए कि वह भी विरह व्यथा में थी तो इधर हम भी एक दूजे से दूर और जुदा हैं। यह अलग बात है कि हम जुदा होकर भी जुदा हो नहीं पाते हैं। लेकिन ऐसी घनघोर घटाओं में भी गर उनका साथ ना हो तो अखरता है...दिल को जलाता है...तन बदन में एक आग सी लगाता है...दिल में खलबली मचाता है...मुझे बेचैन कर जाता है...मैं मिलने को तरस जाता हूं...उनका साथ पाने को तरस जाता हूं...

Wednesday, July 8, 2009

मंगलम् भगवान विष्णु मंगलम्...



‘मंगलम् भगवान विष्णु मंगलम् गरुड़ध्वज, मंगलम् पुंडरीकाक्षं मंगलाय तनो हरि’...यह मंत्र है सृष्टि के पालनहार भगवार विष्णु का जिसमें उनके रूप का बखान करते हुए उनसे मंगल कामना की गई है। मगर ‘कम्बख्त इश्क’ में जिस तरह से इसे फ़िल्माया गया है उससे लगता है कि यह मंत्र एक्सक्लूसिवली करीना की छरहरी कोमल कांत देह के लिए ही रचा गया है। हालांकि इस पर थोड़ा विवाद हुआ भी और मीडिया में खबर आई गई हो गई। लेकिन एक बात और जो ग़ौर करने लायक है कि न सिर्फ गाने में प्रयुक्त मंत्र के फिल्मांकन में अभद्रता बरती गई है बल्कि इस मंत्र का उच्चारण भी अशुद्ध किया गया है। यह कोई अंतराक्षरी का खेल नहीं है यहां हलन्त और विसर्ग के लगने या हटने से ही अर्थ का अनर्थ हो जाता है। लेकिन इस बात पर न ही तो किसी का ध्यान गया और न ही मीडिया ने अपनी ओर से कोई पहल ही की। गाने के बीच में यह मंत्र इस्तेमाल किया गया है और इस पर विज़ुअल ऐसा फिट किया गया है जिसका इस मंत्र से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। इस मंत्र के दौरान करीना एक जहाज पर बिकनी पहने अपने हुस्न का जलवा इस कुछ ऐसे बिखेर रहीं हैं मानो यह मंगल कामना उनकी तरुण काया के लिए ही की जा रही हो। कुछ खास किस्म के दृश्यों को लेकर हमारे बॉलीवुड में एक कथन बहुत प्रचलन में है कि यह तो कहानी की मांग थी लेकिन इस गाने में इस मंत्र पर करीना का नंगापन तो कहीं से भी कहानी या संगीत की मांग नज़र नहीं आया।



हालांकि ऐसा नहीं है कि इससे पहले फिल्मों में वैदिक मंत्रों का प्रयोग नहीं हुआ। यदि पुरानी फिल्मों की बात करें तो उनकी तो शुरूआत ही वैदिक मंत्रों से हुआ करती थी। इसके बाद इस दौर की फिल्मों में भी संस्कृत के शलोकों और मंत्रों का इस्तेमाल होता आया है। मसलन करण जौहर की कभी खुशी कभई ग़म में ‘त्वमेव माताश्च पिता त्वमेव’ का बेहतरीन प्रयोग देखने को मिलता है। लेकिन कम्बख्त इश्क के निर्माता निर्देशक दोनों की ही बुद्धि क्या घास चरने गई थी जो इस तरह की बेहुदा हरकत कर बैठे। जहां तक करीना कपूर की बात है तो उनके लिए तो अपने तराशे हुए कोमल बदन का प्रदर्शन करना शायद गर्व की बात हो और फिर उन्हें पैसे भी तो इसी बात के दिए जा रहे हैं। ताज्जुब की बात तो यह है कि संस्कृति के ठेकेदारों की नज़र भी इस मंत्र के साथ किए गए इतने भद्दे मज़ाक पर नहीं पड़ी। या हम यह समझें कि उनका ज़ोर भी सिर्फ आम आदमी पर ही चलता है। एक संभावना और बनती है कि कम्बख्त इश्क की अधिकतर शूटिंग हॉलीवुड में हुई है तो क्या यह समझा जाए कि सिनेमा के ज़रिए विशुद्ध भारतीय संस्कृति को बेचा जा रहा है। तो निर्माता महोदय बताएंगे कि यह सौदा उन्होंने कितने में किया। बहरहाल सौदा तो हो चुका है, विवाद की लपटें ज़यादा ऊपर तक उठ नहीं पाई, चिंगारी के फिर से भड़कने की संभावना बहुत कम ही है और यदि इसकी लपटें उठती भी हैं तो इसमें झुलसने वाले निर्माता निर्देशक तो होंगे नहीं। बहुत ज़यादा हुआ तो गाने से इस दृश्य को हटा लिया जाएगा। बॉलीवुड ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब किसी फिल्म से किसी खास दृश्य को फिल्माने के बाद उसे हटा लिया गया हो। अमिताभ बच्चन की आने वाली फिल्म ‘रण’ में राष्ट्रीय गान के साथ कुछ इसी तरह का खिलवाड़ किया गया था जिस पर हाई कोर्ट ने पाबंदी लगा दी। लेकिन कमबख्त इश्क की ‘कमबख्तता’ पर अभी तक किसी का ध्यान क्यों नहीं गया, क्या देश के शीर्षस्थ कोर्ट को जिसका आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते स्वयं मुंडकोपनिषद् से लिया गया है इसका खयाल तक नहीं आया कि यह भारतीय संस्कृति को दूषित करने की कोशिश है। क्या वहां भी यह विचार तक नहीं आया कि इसके दूरगामी परिणाम कितने भयंकर हो करते हैं? आज हम इन मंत्रों को जिस रूप में दिखला रहे हैं आने वाली पीढ़ी पर इसका क्या असर होगा? कौन इसकी ज़िम्मेदारी लेगा? क्या राष्ट्र की संस्कृति, उसकी अस्मिता से संबंधित मामलों पर कोर्ट को स्वयं संज्ञान नहीं लेना चाहिए? बहरहाल हम दुआ के सिवा और कर भी क्या सकते हैं कि ईश्वर, अल्लाह इन निर्माता निर्देशकों को सद्बुद्धि दे। आखिर मंगलम् भगवान विष्णु मंगलम् में भी तो यही कामना की गई है।

Saturday, July 4, 2009

वो बूढ़ी औरत...


पिछले दिनों एक साक्षात्कार के सिलसिले में लोकसभा जाना हुआ। इसकी आरंभ सीमा के पास ही एक बूढ़ी औरत बैठी रो रही थी। मैनें उनसे पूछा क्या हुआ मां जी, मगर कुछ कहने के बजाय उनकी सिसकियां और बढ़ गई। मैंने फिर उनसे कहा कि देखिए मैं आपके बेटे के समान हूं। कुछ बताएं तो शायद मैं आपकी कोई मदद कर सकूं। इतना कहने पर वह मुझे बताने को राज़ी हुई। कहने लगी बेटा! मेरे बच्चे भूख से बिलख रहे हैं...आंखें अंदर धंसे जा रही हैं...पेट कमर से जा लगा है...हाथ-पैर कीर्तन कर रहे हैं...वो भूख से बिलख रहे हैं...और मुझसे उनका बिलखना देखा नहीं जाता। सत्तू पिलाकर सुलाने की कहानी तो अब पुरानी हो गई, यहां तो वह भी नसीब नहीं होता। खाने को घर में आटा दाल कुछ नहीं है। बेटे खेती करते हैं उससे जो फसल आती है उसे बेचकर भी इतना पैसा नहीं मिल पाता कि साल भर का काम चल सके। पैदावार होती है तो मंडी में पहुंचने से पहले ही साहूकार आ धमकता है सूद समेत अपना पैसा वापस मांगने। फिर खून पसीना बहाकर, दौड़-धूप करके, भरी सर्दी में भी रात भऱ खेतों में जागकर पैदा की हुई फसल भी हमारी कहां रह जाती है।
मैंने पूछा कि माता जी जब सरकार ने ऋण प्रक्रिया इतनी सरल कर दी है तब भी आप साहूकार से कर्ज लेती ही क्यों हैं? वृद्धा कहने लगी कि हां सुनने में तो आया था कि सरकार किसानों को बहुत सस्ते कर्ज दे रही है और जिनसे कर्ज चुकाया नहीं गया उनके कर्ज माफ भी किये हैं। हां बेटा, कर्ज लेना आसान हुआ है पर कागजों से कानों तक ही इसकी आसानी है। जब कर्ज लेने जाओ तब पता लगती है इसकी ‘सरलता’। आज फॉर्म नहीं है...अगले सप्ताह आइएगा...फिर जैसे-तैसे फॉर्म मिलता है तो पता लगता है कि अधिकारी महोदय 15 दिन की छुट्टी पर हैं...जब आएंगे तो उसके बाद ही बात कुछ आगे बढ़ेगी। तब तक खाद बीज देने का मौसम निकल जाता है। फिर चाहे वो ऋण मिले या ना मिले उसका कोई मतलब नहीं रह जाता। इससे तो ठीक हमारा साहूकार है जिससे कर्जा मांगो तो समय पर मिल तो जाता है। फिर हम चाहे जैसे उस ऋण को उतारते रहें।
मैं मन ही मन सोचने लगा कि बड़ी त्रासद स्थिति है आज निजी से लेकर सरकारी बैंक तक सभी घरों में घुस घुस कर घरों के लिए ज़बरदस्ती लोन देने में मसरूफ हैं और जिसे ज़रूरत है उसे ही लोन नहीं मिलता। वृद्धा ने आंखों से आंसू पोंछते हुए कहा कि आजकल मार्केट के वो बड़ी बड़ी चैन सिस्टम वाले लोग भी सब्जियों पर अपना हक जमाने आ जाते हैं। पहले कम से कम जो उगाते थे उसे बेचकर पेट तो भर लिया करते थे। मगर अब तो अगर बाजा़र में खरीदने जाओ तो दाम तिगुने-चौगने सुनते ही पैरों तले ज़मीन खिसक जाती है। सब्जियां तो धीरे धीरे हर आम आदमी की थाली से बाहर होती जा रही हैं। सरकार बार बार कह रही है कि मंहगाई दर कम हो रही है फिर ये समझ नहीं आता कि महंगाई क्यों हनुमान की पूंछ की तरह लगातार बढ़ती जा रही है। मैंने उनसे पूछा कि तो फिर यहां बैठकर आप इस तरह से विलाप क्यों कर रही हैं? वे लगी कहने कि चुनाव से पहले एक हाथ हमारा हाथ थामने आया था और 3 रुपये किलो में 25 किलो अनाज हर महीने देने का वादा किया था। मगर आज भी मेरे बच्चे सिर्फ पानी पीकर ही सोने को मजबूर हैं। अब वो हाथ कहीं दिखाई नहीं देता है। सोचते हैं कि ना ही तो कोई हाथ सिर पर है और ना ही हमारी ज़िंदगी में कमल ही खिलता है। यहां आकर इसलिए बैठी थी कि उनमें से कुछ लोग दिखाई दें तो उनसे कहूंगी कहां हैं उनके वादे। वोट मांगते वक्त तो बड़ी बड़ी हांकते थे और अब मुड़कर देखते भी नहीं। मगर कोई फायदा नहीं हुआ, वे लोग अब मुझे पहचानने से ही इंकार कर रहे हैं।
संवेदनाएं जवाब देने लगी थी और मैं उनसे पूछ बैठा कि आप कौन हैं, आपका नाम क्या है। उनकी सिसकियां फिर तेज़ होने लगी। लगा जैसे उनके किसी पुराने ज़ख्म को छेड़ दिया हो। वे कहने लगी कि तुम भी मुझे नहीं पहचान रहे हो...मैं वो हूं जिसकी अज़ादी के बाद से ही अनदेखी होती आई है। मैं तो भारत के हर छोटे-बड़े गांव, कस्बे, शहर में रहती हूं। अब मेरे बुढ़ापे का सहारा भी कोई नहीं है। मेरा नाम ग़रीबी है और मेरे जो करोड़ों बच्चे भूख से बिलख रहे हैं वो ग़रीब हैं। इतना कहकर मानो उनके ढांढस का बांध टूट गया था और उनकी आंखें छलक आई...