
इन दिनों विभिन्न संस्थानों में हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है या कुछ में मना लिया गया है। एक तो हिंदुस्तान में हिंदी की यह हालत हो गई है कि यहां इसी के लिए पखवाड़े मनाए जाने लगे हैं। दूसरा इन पखवाड़ों में एक दिन हिंदी की (दुर्) दशा पर गोष्ठी का आयोजन कर अपना कर्त्तव्य पूरा समझ लिया जाता है।
ऐसी ही एक गोष्ठी में श्रोताओं की कतार में बैठकर कुछ बुद्धिजीवियों को सुनने का सौभाग्य हमें भी मिला। हिंदी का भविष्य बनाम संगोष्ठी का विषय था भविष्य की हिंदी। इस संगोष्ठी में अंग्रेज़ी से विधिवत इश्क करने वाले और हिंदी के खलनायक कहे जाने वाले एक बुद्धिजीवी को सुनकर वाकई बहुत अच्छा लगा। उन्होंने चिंता जताई कि 2050 तक हिंदी तकरीबन ख़त्म हो जाएगी। कारण आज ग़रीब से ग़रीब आदमी भी चाहता है कि उसका बच्चा अंग्रेज़ी पढ़े, अंग्रेज़ी बोले, अंग्रेज़ी खाए, अंग्रेज़ी पीए और अंग्रेज़ी ही जीए। अब जब सारे काम अंग्रेज़ी में ही होने लगेंगे तो भला हिंदी कहां बचेगी। उनका मानना था कि तब तक ज़िंदगी के तमाम गंभीर काम मसलन पढ़ना और लिखना अंग्रेज़ी में होने लगेंगे। ठीक ही है हमारे कुछ अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ने वाले मित्रगण हैं जो अंग्रेजी में ही सोचते हैं। उनकी समस्या ये है कि उनका सॉफ्टवेयर हिंदी को एक्सेप्ट ही नहीं करता है। अब समझा जा सकता है कि जब ख़याल ही अंग्रेज़ी हो जाएंगे तो आगे क्या होगा।
जहां भाषा की बात होती है वहां उसके बहती नदी की तरह होने की बात ज़रूर की जाती है। साथ ही भाषा को संस्कारों का वाहक भी माना जाता है। सो ये सारी बातें यहां भी हुई। ठीक भी है ठहरा हुआ पानी सड़ जाता है। भाषा की जीवंतता भी उसके बहते रहने में ही है। इस बहाव में अगर कुछ शब्द बहकर भाषा से निकल जाते हैं तो उस पर विलाप नहीं करना चाहिए। उनकी जगह अंग्रेज़ी के कुछ शब्द अपना अभिन्न स्थान बना लेते हैं तो अच्छी ही बात है। वैसे भी सहिष्णुता तो हमारी सांस्कृतिक विशेषता है। इस तरह के बदलाव से हम आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन इस आगे बढ़ने की प्रक्रिया में हम ये नहीं देखते कि हम उत्कृष्टता की ओर बढ़ रहे हैं या निकृष्टता की ओर। इसे देखकर इसका अंतर करना भी ज़रूरी है।
अब कोई कह सकता है कि जब रूम बोलने से भी कमरे की तस्वीर उभरती है, मोम या ममा बोलने से मां का ख़याल आ जाता है तो फिर आपको ऐसे शब्दों को हिंदी में मिला लेने से आखिर क्या ऐतराज़ है? तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं है। लेकिन जब ये भाषाई आदान प्रदान प्रभुता के भाव से वर्णसंकरता में तब्दील होने लगता है तो हमें ऐतराज़ होने लगता है। यानि हिंदी बोलें तो हमें हीन समझा जाता है। जब ये परिवर्तन हीनता के इसी भाव से ग्रसित होकर होने लगता है तो यह ख़ुद की पहचान मिटाने जैसा है।
चलते चलते एक बात और। हो सकता है कि ये बात आपको कड़वी लगे लेकिन कभी कभी नीम और करेला भी फायदेमंद होते हैं। क्या आप अपनी मां को मोरंजन का साधन बनते देख सकते हैं? लेकिन भविष्य की तस्वीर तो कुछ यही कहती है कि हिंदी केवल सिनेमा के पर्दे पर, टीवी की स्क्रीन पर ही रह जाएगी। अब मनोरंजन आज पूरी तरह से बज़ार का हिस्सा हो चुका है। ख़ुदा ना खास्ता अगर ऐसा होता है तो क्या हिंदी बाज़ारू नहीं हो जाएगी? तो क्या आप हिंदी को बाज़ारू बनते देख सकते हैं? या फिर हिंदी को अपना गर्व समझते हैं? अगर आपको कोई आपका अपना घर छोड़कर किराए के मकान में जाकर रहने को कहे तो आपको कैसा लगेगा? क्या आप उसे वैसे ही अपना सकते हैं? क्या वहां भी वैसा ही महसूस कर सकते हैं जैसा अपने घर में करते हैं? क्या आप वहां जी पाएंगे? तो फिर आप अपनी भाषा को छोड़कर किसी विदेशी भाषा को आप कैसे अपना सकते हैं? कैसे उसे अंगीकार कर सकते हैं? अगर आपका जवाब ना है तो ज़रा सोचिए क्या हिंदी को छोड़कर जी पाएंगे...हिंदी हमारी मातृ भाषा है जो विकास हमारा हिंदी में हो सकता है उसका रत्ती भर भी अंग्रेज़ी में नहीं हो सकता। हां अंग्रेज़ी समय की ज़रूरत है लेकिन इसके लिए हम हिंदी के साथ बलात्कार क्यों कर रहे हैं?
ऐसी ही एक गोष्ठी में श्रोताओं की कतार में बैठकर कुछ बुद्धिजीवियों को सुनने का सौभाग्य हमें भी मिला। हिंदी का भविष्य बनाम संगोष्ठी का विषय था भविष्य की हिंदी। इस संगोष्ठी में अंग्रेज़ी से विधिवत इश्क करने वाले और हिंदी के खलनायक कहे जाने वाले एक बुद्धिजीवी को सुनकर वाकई बहुत अच्छा लगा। उन्होंने चिंता जताई कि 2050 तक हिंदी तकरीबन ख़त्म हो जाएगी। कारण आज ग़रीब से ग़रीब आदमी भी चाहता है कि उसका बच्चा अंग्रेज़ी पढ़े, अंग्रेज़ी बोले, अंग्रेज़ी खाए, अंग्रेज़ी पीए और अंग्रेज़ी ही जीए। अब जब सारे काम अंग्रेज़ी में ही होने लगेंगे तो भला हिंदी कहां बचेगी। उनका मानना था कि तब तक ज़िंदगी के तमाम गंभीर काम मसलन पढ़ना और लिखना अंग्रेज़ी में होने लगेंगे। ठीक ही है हमारे कुछ अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ने वाले मित्रगण हैं जो अंग्रेजी में ही सोचते हैं। उनकी समस्या ये है कि उनका सॉफ्टवेयर हिंदी को एक्सेप्ट ही नहीं करता है। अब समझा जा सकता है कि जब ख़याल ही अंग्रेज़ी हो जाएंगे तो आगे क्या होगा।
जहां भाषा की बात होती है वहां उसके बहती नदी की तरह होने की बात ज़रूर की जाती है। साथ ही भाषा को संस्कारों का वाहक भी माना जाता है। सो ये सारी बातें यहां भी हुई। ठीक भी है ठहरा हुआ पानी सड़ जाता है। भाषा की जीवंतता भी उसके बहते रहने में ही है। इस बहाव में अगर कुछ शब्द बहकर भाषा से निकल जाते हैं तो उस पर विलाप नहीं करना चाहिए। उनकी जगह अंग्रेज़ी के कुछ शब्द अपना अभिन्न स्थान बना लेते हैं तो अच्छी ही बात है। वैसे भी सहिष्णुता तो हमारी सांस्कृतिक विशेषता है। इस तरह के बदलाव से हम आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन इस आगे बढ़ने की प्रक्रिया में हम ये नहीं देखते कि हम उत्कृष्टता की ओर बढ़ रहे हैं या निकृष्टता की ओर। इसे देखकर इसका अंतर करना भी ज़रूरी है।
अब कोई कह सकता है कि जब रूम बोलने से भी कमरे की तस्वीर उभरती है, मोम या ममा बोलने से मां का ख़याल आ जाता है तो फिर आपको ऐसे शब्दों को हिंदी में मिला लेने से आखिर क्या ऐतराज़ है? तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं है। लेकिन जब ये भाषाई आदान प्रदान प्रभुता के भाव से वर्णसंकरता में तब्दील होने लगता है तो हमें ऐतराज़ होने लगता है। यानि हिंदी बोलें तो हमें हीन समझा जाता है। जब ये परिवर्तन हीनता के इसी भाव से ग्रसित होकर होने लगता है तो यह ख़ुद की पहचान मिटाने जैसा है।
चलते चलते एक बात और। हो सकता है कि ये बात आपको कड़वी लगे लेकिन कभी कभी नीम और करेला भी फायदेमंद होते हैं। क्या आप अपनी मां को मोरंजन का साधन बनते देख सकते हैं? लेकिन भविष्य की तस्वीर तो कुछ यही कहती है कि हिंदी केवल सिनेमा के पर्दे पर, टीवी की स्क्रीन पर ही रह जाएगी। अब मनोरंजन आज पूरी तरह से बज़ार का हिस्सा हो चुका है। ख़ुदा ना खास्ता अगर ऐसा होता है तो क्या हिंदी बाज़ारू नहीं हो जाएगी? तो क्या आप हिंदी को बाज़ारू बनते देख सकते हैं? या फिर हिंदी को अपना गर्व समझते हैं? अगर आपको कोई आपका अपना घर छोड़कर किराए के मकान में जाकर रहने को कहे तो आपको कैसा लगेगा? क्या आप उसे वैसे ही अपना सकते हैं? क्या वहां भी वैसा ही महसूस कर सकते हैं जैसा अपने घर में करते हैं? क्या आप वहां जी पाएंगे? तो फिर आप अपनी भाषा को छोड़कर किसी विदेशी भाषा को आप कैसे अपना सकते हैं? कैसे उसे अंगीकार कर सकते हैं? अगर आपका जवाब ना है तो ज़रा सोचिए क्या हिंदी को छोड़कर जी पाएंगे...हिंदी हमारी मातृ भाषा है जो विकास हमारा हिंदी में हो सकता है उसका रत्ती भर भी अंग्रेज़ी में नहीं हो सकता। हां अंग्रेज़ी समय की ज़रूरत है लेकिन इसके लिए हम हिंदी के साथ बलात्कार क्यों कर रहे हैं?