Tuesday, August 26, 2014

जयपुर मेट्रो : बदलाव अच्छे हैं


कुछ महीनों पहले तक मेट्रो जयपुर का सपना हुआ करती थी। अब भी है। शहरवासियों का इसमें बैठने का इंतजार अभी पूरा नहीं हुआ है। लेकिन शहर के एक बड़े अखबार के लिए अचानक यह दुःस्वप्न बन गई। न जाने कैसे। कोई कह सकता है कि इससे क्या फर्क पड़ता है। फर्क पड़ता है, बल्कि पड़ना शुरू भी हो गया है। फर्क पड़ता है, क्योंकि अखबार ओपिनियन मेकर होते हैं। फर्क पड़ रहा है, क्योंकि न्यायपालिका का समय बर्बाद हो रहा है। फर्क और पड़ेगा, क्योंकि तमाशा अभी जारी है...

जयपुर करवट ले रहा है। कई मायनों में बदल रहा है। बढ़ रहा है। आधुनिकता की ओर, छोटी काशी से मेट्रो नगरी की ओर, पिंक सिटी से स्मार्ट सिटी की ओर। जयपुर मेट्रो हाल का सबसे बड़ा बदलाव है। शहर का एक इलाका है- परकोटा। चारदीवारी में बंद। पुराना जयपुर। ज्यादातर धरोहरें इसी इलाके में हैं। बाजार बरामदों में है। देश-विदेश से सैलानी यहीं आते हैं। अब यहां भूमिगत मेट्रो के लिए सुरंग की खुदाई का काम चल रहा है। कुछ लोग इसका बाहें फैलाकर स्वागत कर रहे हैं और कुछ इसे स्वीकार ही नहीं कर पा रहे।
मत वैभिन्नय हो सकता है। होना भी चाहिए। लेकिन ठोस आधार के साथ। आधारहीन, रीढ़विहीन विरोध समय और ऊर्जा दोनों की बर्बादी है। और जब ऐसा विरोध कोई अखबार करे तो यह लाखों-करोड़ों लोगों के समय और ऊर्जा की बर्बादी में बदल जाता है। उसके पत्रकारों में कोफ्त पैदा करता है सो अलग। कहते हैं, किसी शहर को फौरी तौर पर जानना हो तो उसके अखबार देख लो। जयपुर में दो ही बड़े अखबार हैं। दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका। कुछ महीने पहले तक दोनों अखबारों के लिए यह सपनों की मेट्रो हुआ करती थी। फिर एकाएक एक अखबार के लिए दुःस्वप्न बन गई।
फर्ज कीजिए आप शहर में नए हैं। आपको एक अखबार में सुरंग की खुदाई से ट्रैफिक डायवर्जन, विश्व धरोहरों को खतरा, बरामदों के आगे बैरिकेड लगने से व्यापारियों का धंधा चौपट होने जैसे तर्कों के साथ मेट्रो का विरोध दिखाई पड़े तो आप क्या सोचेंगे? या तो हंसेंगे या विचलित होंगे या सब समय पर छोड़ आगे बढ़ जाएंगे या फिर अखबार को सही मानेंगे। मेरा सामना रोजाना शुराआती तीनों तरह के लोगों से होता है। चौथी तरह के लोगों में से एक व्यक्ति का सामना पूरे शहर से हुआ। उसने हाल में सुरंग की खुदाई बंद करने की मांग वाली एक याचिका जनहित के नाम पर राजस्थान हाईकोर्ट में लगा दी। इसमें भी उसी अखबार के उठाए मुद्दे और दावे। कोर्ट ने काम रोकने से मना कर दिया। यह तो गनीमत रही कि जनहित याचिका की गरिमा बनाए रखी और याचिकाकर्ता पर कोर्ट का वक्त बर्बाद करने के लिए जुर्माना नहीं ठोका।
जाहिर है, ट्रैफिक डायवर्जन और बाजार की बैरिकेडिंग से थोड़ी दिक्कत तो लोगों को हो ही रही है। लेकिन, क्या इसका यह मतलब है कि काम ही रोक दिया जाए? बदलाव की राह पर चलते हुई दिक्कतें जरूर होती हैं, लेकिन परिणामतः वे सारी दिक्कतें हैं तो सुविधा के लिए ही ना? फिर सरकारें क्या इतनी बेवकूफ हैं कि विश्व धरोहरों को खतरे की कीमत पर विकास करें? ऐसी विरासत जिसका राज्य की अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान है। जहां तक अखबार के इसे मुद्दा बनाने का सवाल है तो अखबार को देखकर तो यही लगता है कि वह व्यापारियों के हितों की लड़ाई लड़ रहा है। उसे बाजारों की बैरिकेडिंग से दीवाली के समय व्यापारियों के घाटे की ज्यादा चिंता है। न तो अभी तक वह इस पूरे में मामले किसी बड़े घोटाले जैसा कोई खुलासा कर पाया, न क्रोनी कैपिटलिज्म जैसी कड़ियां ही जोड़ पाया और न ही इसका ठोस कारण बता पा रहा है कि पुरातत्व विभाग ने जयपुर मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन को खुदाई की अनुमित कैसे दे दी। ये कैसा विरोध है?
दिल्ली के चांदनी चौक में रहने वाले लोगों ने जब पहली बार चांदनी चौक मेट्रो स्टेशन में प्रवेश किया तो अवाक् रह गए थे। फिर मुंह से निकला भी तो सिर्फ इतना कि इतना सब कब हो गया, पता ही न चला। कभी ट्रैफिक से ठसे पड़े रहने वाले चांदनी चौक में आज कोई भी अपने साधन से जाना बेवकूफी समझता है। दिल्ली और जयपुर दोनों शहरों पर आबादी का दबाव बढ़ रहा है। तब यदि चांदनी चौक में मेट्रो न चली होती तो आज हालात और बदतर होते। परकोटे में ट्रैफिक की पीड़ा जयपुर में रहने वाले लोग झेलते हैं, इसिलए वे यहां मेट्रो की अहमियत भी बखूबी जानते हैं। पांच साल बाद की स्थिति का अंदाजा भी उन्हें खूब है। किसी सरकार ने 10 साल बाद के शहर की स्थिति को भांपते हुए आज ही काम शुरू कर दिया, इससे बेहतर दूरदर्शिता और भला क्या हो सकती है? फिर मेट्रो के चलने से धरोहरों को नुकसान के बजाय फायदा ही होगा, क्योंकि वाहनों के धुएं से होने वाला प्रदूषण कुछ तो कम होगा। हमें समझना होगा कि यह बदलाव शहर की बेहतरी के लिए है, शहरवासियों की सुविधा के लिए है। 
समय के साथ हर शहर बदल रहा है। बदलाव अच्छे हैं। जो समय के साथ कदमताल करने से घबराते हैं, वो रुक जाते हैं। यह तब समझ आता है, जब एक दिन किसी नोकिया की तरह खुद को सबसे पीछे खड़ा पाते हैं। फिर कोई माइक्रोसॉफ्ट की तरह उसके जीर्णोद्धार को आगे आता है। अपना अस्तित्व बचाने को उसे मजबूरन खुद को पराये हाथों में सौंपना पड़ता है। शुक्र है कि जयपुर अभी खुदमुख्तार है। अपनी श्रेणी के शहरों में सबसे आगे है।

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