Friday, November 27, 2009
अख़बारों को क्या हो गया है...
घटना एक ही थी लेकिन उसे देखने का तरीका अलग अलग। कैसे कोई एक रिपोर्टर अपने ख़ास एंगल की वजह से आगे बढ़ता जाता है। लेकिन गन्ना किसानों के इस मामले में मुझे कहीं से अखबारों का कोई अलग एंगल नज़र नहीं आया। नज़र आया तो सिर्फ ये कि उन्होंने किसी दूसरे चशमे से उस घटना को देखा।
संयोगवश उस रोज़ मैं भी अपने क्लासरूम में ना होकर सड़क पर ही था लेकिन मुझे नवभारत, हिंदुस्तान, नई दुनिया, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंन्दुस्तान टाइम्स जैसी चीज़ें तो महसूस नहीं हुई। शायद इसलिए कि जिस चश्मे से ये सारे बड़े और राष्ट्रीय कहलाने वाले समूह इस घटना को देख रहे थे मेरे पास वह चश्मा नहीं था और आज भी नहीं है।
कुछ अखबारों की लीड की तरफ ध्यान चाहूंगा
KISAN JAM – TIMES OF INDIA
BITTER HARVEST, THEY PROTESTED, DRANK, VANDALISED AND PEED – HINDUSTAN TIMES
हिंसा की खेती – नवभारत टाइम्स
तर्क दिया जाता है कि इन अखबारों के टारगेट ऑडियंस को ध्यान में रखकर ही इन्होंने ख़बर को इस तरह पेश किया। जिस टारगेट ऑडियंस की बात की जाती वह लक्षित जनसमूह खुद उस मीडिया समूह की बनाई हुई एक परिधि होती है जिसके इर्द गिर्द वह घूमता रहता है। उसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। एक कमरे में बैठकर करोड़ों पाठकों की रूचि को परिभाषित कर दिया जाता है।
इस पूरे घटनाक्रम में सवाल यह उठता है कि किसी भी घटना के चरित्र को बदलने का हक इन अखबारों को किसने दिया। यह पहले भी कई अध्ययनों में साबित हो चुका है कि मीडिया छवि को बनाने में अहम भूमिका अदा करता है। ओबामा को किसने पॉपुलर बनाया, राहुल गांधी को किस तरह से प्रोजेक्ट किया जा रहा है, कलावती की चर्चाओं का बाज़ार किसने गर्म किया। बहुतेरे उदाहरण हैं जिनमें मीडिया की इस भूमिका को साफ देखा जा सकता है।
यहां जिस तरह से किसानों की तस्वीर पेश की गई उसने पूरी तरह से किसानों की छवि को दागदार बनाया। नई दुनिया को ज़रा भी शर्म नहीं आई किसानों को उत्पाती कहते हुए।
अगर यह तर्क दिया जाए कि इन अखबारों ने एक अलग एंगल लिया तो फिर इन अखबारों के संपादकों को एक बार पत्रकारिता के स्कूलों में जाकर पत्रकारिता सीखनी चाहिए। क्योंकि जिस खबर को इन्होंने ‘बनाया’ वह दरअसल कोई एंगल नहीं था। बनाया शब्द यहां इसीलिए इस्तेमाल किया गया कि इस खबर को बनाया गया, असल में वह खबर थी नहीं। एंगल में खबर के ही किसी महत्त्वपूर्ण हिस्से को लिया जाता है। अब महत्त्वपूर्ण को परिभाषित करना भी ज़रूरी हो जाता है क्योंकि अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग बातें महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं।
पत्रकारिता के सिद्धांतों के आधार पर महत्त्वपूर्ण वह है जो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को प्रभावित करे। जो नया हो और लोकहित में हो। कम से कम जाम लगना तो महत्त्वपूर्ण नहीं था। दिल्ली में जाम लगना आम बात है। कितने ही रूट ऐसे हैं जहां सुबह शाम जाम का नज़ारा आम होता है। उसमें नया क्या था।
अब समझ यह नहीं आता कि इसे पत्रकारिता का बदलता हुआ स्वरूप कहें या पत्रकारों का बदलता नज़रिया...
Wednesday, November 11, 2009
नहीं रहे कागद मसि के मसीहा !

अपनी कलम का जादू बिखेरने की तैयारी में लगे प्रभाष जोशी की आंखे जैसे सचिन के बल्ले से निकले एक-एक शॉट को जेहन में उतार लेना चाहती थी। हैदराबाद में सचिन जब अपने पुराने अंदाज़ में खेलते नज़र आ रहे थे तो पत्रकारिता के उस शीर्ष के हर पाठक को शायद सुबह का इंतज़ार था। क्योंकि जब जब तेंदुलकर का बल्ला चला है तब तब प्रभाष जोशी की कलम चली है।
पांच तारीख की रात जब सचिन चौव्वे पे चौव्वे लगा रहे थे तो अनायास ही उनका ख़याल आ गया। साथ मैच देखते मित्र से अपने मन की बात को साझा करते हुए कहा कि कल के जनसत्ता में प्रभाष जी की जादुई पारी देखने को मिलेगी। लेकिन वक़्त को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। हमें क्या पता था कि दादाजी के कागद मसि तो दूर अब हम कभी दादाजी को भी नहीं देख सकेंगे।
पत्रकारिता के कुबेर का इस दुनिया से जाना एक युग का अंत है। उन्होंने पांच तारीख की रात को अपनी अंतिम सांसें ली। अगली सुबह उनके शव को दर्शनार्थ गांधी प्रतिष्ठान लाया गया। ऐसा लग रहा था जैसे यहां के पेड़-पौधे और दीवारें भी नम आंखों से इस युग पुरूष को श्रद्धांजलि दे रही हों। उनके अंतिम दर्शन के लिए वे सभी पत्रकार वहां मौजूद थे जो उनसे पत्रकारिता सीखते हुए आगे बढ़े।
इंडियन एक्सप्रैस के संपादक शेखर गुप्ता की आंखें यह कहते हुए नम हो उठी कि वह उनके पिता तुल्य थे। उन्होंने कहा उनका जाना पत्रकारिता के लिए एक बड़ी क्षति है। यह पूछने पर कि उनके बाद कौन ऐसा दिखाई देता है जो उस मशाल का हरकारा बन सके जो उन्होंने जलाई थी, शेखर ने कहा कि अभी ऐसा कोई दिखाई नहीं देता।
दादाजी ने अपनी पत्रकारिता के ज़रिए दिल्ली में मालवा की संस्कृति को स्थापित किया। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता में एक नया मुहावरा गढ़ा और उसे एक नए मुकाम पर पहुंचाया। वह अकेले ऐसे पत्रकार थे जो आज की पत्रकारिता पर लगातार सवाल उठाते रहे थे और आने वाली पीढ़ी के पत्रकारों में एक नई उर्जा का संचार करते थे।
दादाजी ज़िंदगी की पिच पर कलम की बल्लेबाजी करते हुए इस दुनिया को अलविदा कह गए। 72 की उम्र में भी वह खुद को सक्रिय रखते थे। कागद मसि के उस मसीहा के जाने के बाद कौन है जो कागद कारे करेगा और पत्रकारिता के मूल्यों की बात करेगा।
Wednesday, November 4, 2009
प्यार में ऐसा होता है...

रग़ रग़ में प्यार भर जाता है
और जीवन संवर जाता है
प्यार करो तो जानो यारों
प्यार में ऐसा होता है...
प्यार मिले जब प्यार से अपने
प्यार में महके तन मन सारा
देखो अपने दिल को देखो
दिल खोया खोया रहता है
प्यार करो तो जानो यारों
प्यार में ऐसा होता है...
फुलवारी लगे ये दुनिया सारी
ख़ुशियों से हो अपनी यारी
हर सुबह लगे नई सी
हर पल नया नया सा लगता है
प्यार करो यो जानो यारों
प्यार में ऐसा होता है...
प्यार में मानो जिसको अपना
जब वो बेगाना-सा हो जाता है
आंख से दरिया बहता है और
दिल रह-रह कर रोता है
प्यार करो तो जानो यारों
प्यार में ऐसा होता है...
नहीं कुछ अच्छा लगता मन को
हर अपना भी बेगाना लगता है
प्यार मिले ना प्यार से अपने
तब फिर ऐसा होता है
प्यार करो तो जानो यारों
प्यार में ऐसा होता है...
नींद कहां फिर आती है
इस दिल का चैन खो जाता है
सदियों से लंबी लगती रातें
पल-पल सांसों पर भारी हो जाता है
प्यार कभी ना करना यारों
प्यार में ऐसा होता है...
प्यार में ऐसा होता है...