Tuesday, August 26, 2014

जयपुर मेट्रो : बदलाव अच्छे हैं


कुछ महीनों पहले तक मेट्रो जयपुर का सपना हुआ करती थी। अब भी है। शहरवासियों का इसमें बैठने का इंतजार अभी पूरा नहीं हुआ है। लेकिन शहर के एक बड़े अखबार के लिए अचानक यह दुःस्वप्न बन गई। न जाने कैसे। कोई कह सकता है कि इससे क्या फर्क पड़ता है। फर्क पड़ता है, बल्कि पड़ना शुरू भी हो गया है। फर्क पड़ता है, क्योंकि अखबार ओपिनियन मेकर होते हैं। फर्क पड़ रहा है, क्योंकि न्यायपालिका का समय बर्बाद हो रहा है। फर्क और पड़ेगा, क्योंकि तमाशा अभी जारी है...

जयपुर करवट ले रहा है। कई मायनों में बदल रहा है। बढ़ रहा है। आधुनिकता की ओर, छोटी काशी से मेट्रो नगरी की ओर, पिंक सिटी से स्मार्ट सिटी की ओर। जयपुर मेट्रो हाल का सबसे बड़ा बदलाव है। शहर का एक इलाका है- परकोटा। चारदीवारी में बंद। पुराना जयपुर। ज्यादातर धरोहरें इसी इलाके में हैं। बाजार बरामदों में है। देश-विदेश से सैलानी यहीं आते हैं। अब यहां भूमिगत मेट्रो के लिए सुरंग की खुदाई का काम चल रहा है। कुछ लोग इसका बाहें फैलाकर स्वागत कर रहे हैं और कुछ इसे स्वीकार ही नहीं कर पा रहे।
मत वैभिन्नय हो सकता है। होना भी चाहिए। लेकिन ठोस आधार के साथ। आधारहीन, रीढ़विहीन विरोध समय और ऊर्जा दोनों की बर्बादी है। और जब ऐसा विरोध कोई अखबार करे तो यह लाखों-करोड़ों लोगों के समय और ऊर्जा की बर्बादी में बदल जाता है। उसके पत्रकारों में कोफ्त पैदा करता है सो अलग। कहते हैं, किसी शहर को फौरी तौर पर जानना हो तो उसके अखबार देख लो। जयपुर में दो ही बड़े अखबार हैं। दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका। कुछ महीने पहले तक दोनों अखबारों के लिए यह सपनों की मेट्रो हुआ करती थी। फिर एकाएक एक अखबार के लिए दुःस्वप्न बन गई।
फर्ज कीजिए आप शहर में नए हैं। आपको एक अखबार में सुरंग की खुदाई से ट्रैफिक डायवर्जन, विश्व धरोहरों को खतरा, बरामदों के आगे बैरिकेड लगने से व्यापारियों का धंधा चौपट होने जैसे तर्कों के साथ मेट्रो का विरोध दिखाई पड़े तो आप क्या सोचेंगे? या तो हंसेंगे या विचलित होंगे या सब समय पर छोड़ आगे बढ़ जाएंगे या फिर अखबार को सही मानेंगे। मेरा सामना रोजाना शुराआती तीनों तरह के लोगों से होता है। चौथी तरह के लोगों में से एक व्यक्ति का सामना पूरे शहर से हुआ। उसने हाल में सुरंग की खुदाई बंद करने की मांग वाली एक याचिका जनहित के नाम पर राजस्थान हाईकोर्ट में लगा दी। इसमें भी उसी अखबार के उठाए मुद्दे और दावे। कोर्ट ने काम रोकने से मना कर दिया। यह तो गनीमत रही कि जनहित याचिका की गरिमा बनाए रखी और याचिकाकर्ता पर कोर्ट का वक्त बर्बाद करने के लिए जुर्माना नहीं ठोका।
जाहिर है, ट्रैफिक डायवर्जन और बाजार की बैरिकेडिंग से थोड़ी दिक्कत तो लोगों को हो ही रही है। लेकिन, क्या इसका यह मतलब है कि काम ही रोक दिया जाए? बदलाव की राह पर चलते हुई दिक्कतें जरूर होती हैं, लेकिन परिणामतः वे सारी दिक्कतें हैं तो सुविधा के लिए ही ना? फिर सरकारें क्या इतनी बेवकूफ हैं कि विश्व धरोहरों को खतरे की कीमत पर विकास करें? ऐसी विरासत जिसका राज्य की अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान है। जहां तक अखबार के इसे मुद्दा बनाने का सवाल है तो अखबार को देखकर तो यही लगता है कि वह व्यापारियों के हितों की लड़ाई लड़ रहा है। उसे बाजारों की बैरिकेडिंग से दीवाली के समय व्यापारियों के घाटे की ज्यादा चिंता है। न तो अभी तक वह इस पूरे में मामले किसी बड़े घोटाले जैसा कोई खुलासा कर पाया, न क्रोनी कैपिटलिज्म जैसी कड़ियां ही जोड़ पाया और न ही इसका ठोस कारण बता पा रहा है कि पुरातत्व विभाग ने जयपुर मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन को खुदाई की अनुमित कैसे दे दी। ये कैसा विरोध है?
दिल्ली के चांदनी चौक में रहने वाले लोगों ने जब पहली बार चांदनी चौक मेट्रो स्टेशन में प्रवेश किया तो अवाक् रह गए थे। फिर मुंह से निकला भी तो सिर्फ इतना कि इतना सब कब हो गया, पता ही न चला। कभी ट्रैफिक से ठसे पड़े रहने वाले चांदनी चौक में आज कोई भी अपने साधन से जाना बेवकूफी समझता है। दिल्ली और जयपुर दोनों शहरों पर आबादी का दबाव बढ़ रहा है। तब यदि चांदनी चौक में मेट्रो न चली होती तो आज हालात और बदतर होते। परकोटे में ट्रैफिक की पीड़ा जयपुर में रहने वाले लोग झेलते हैं, इसिलए वे यहां मेट्रो की अहमियत भी बखूबी जानते हैं। पांच साल बाद की स्थिति का अंदाजा भी उन्हें खूब है। किसी सरकार ने 10 साल बाद के शहर की स्थिति को भांपते हुए आज ही काम शुरू कर दिया, इससे बेहतर दूरदर्शिता और भला क्या हो सकती है? फिर मेट्रो के चलने से धरोहरों को नुकसान के बजाय फायदा ही होगा, क्योंकि वाहनों के धुएं से होने वाला प्रदूषण कुछ तो कम होगा। हमें समझना होगा कि यह बदलाव शहर की बेहतरी के लिए है, शहरवासियों की सुविधा के लिए है। 
समय के साथ हर शहर बदल रहा है। बदलाव अच्छे हैं। जो समय के साथ कदमताल करने से घबराते हैं, वो रुक जाते हैं। यह तब समझ आता है, जब एक दिन किसी नोकिया की तरह खुद को सबसे पीछे खड़ा पाते हैं। फिर कोई माइक्रोसॉफ्ट की तरह उसके जीर्णोद्धार को आगे आता है। अपना अस्तित्व बचाने को उसे मजबूरन खुद को पराये हाथों में सौंपना पड़ता है। शुक्र है कि जयपुर अभी खुदमुख्तार है। अपनी श्रेणी के शहरों में सबसे आगे है।

Friday, August 22, 2014

खंड-खंड तसलीमा का निर्वासन

निर्वासन तसलीमा नसरीन की आत्मकथा का सातवां हिस्सा है, लेकिन यह तीसरे हिस्से द्विखंडितो से जुड़ा हुआ है। निर्वासन शुरू ही ‘द्विखंडित पथ’ से होता है, जिस पर लेखक का मत निषिद्ध है। निर्वासन की कहानी का मूल द्विखंडितो में ही है। न तो पश्चिम बंगाल सरकार द्विखंडितो को प्रतिबंधित करती, न तसलीमा खंड-खंड होतीं और न ही उन्हें अपने ही देश में (तसलीमा बांग्लादेश के बाद भारत को ही अपना देश कहती-मानती आई हैं) और फिर विदेशों में भटकते हुए पल-पल मरना पड़ता। एक लेखक को लिखने से रोकना, जो लिखा उसे हटाने को मजबूर करना पल-पल उसकी हत्या करने जैसा ही तो है। निर्वासन के पलटते हर पन्ने के साथ तसलीमा का दर्द गहराता जाता है। अंत तक वोटबैंक की राजनीति करने वाले नेताओं की निर्लज्जता इतनी बढ़ जाती है कि तसलीमा का पूरा लज्जा भी उसे ढकने को छोटा पड़ जाए।
निर्वासन उस महिला की कहानी है, जो उम्रभर नारी के हक और मानवाधिकारों के लिए लड़ती रही, लेकिन प्रगतिशील भारत की पतनशील राजनीति के आगे अपने अधिकारों की रक्षा न कर सकी। करती भी कैसे। एक अकेली महिला इस पुरुषसत्तात्मक समाज से कैसे लड़ लेती। लेकिन, तसलीमा लड़ीं। कट्टरपंथियों के आगे झुकी नहीं। सरकार ने उन्हें देश से निकालने की लाख कोशिशें की, पर तसलीमा ने हार नहीं मानी। निर्वासन इस अडिग, अविचल, साहसी, बेबाक और स्थापित लेखिका को विस्थापित करने और उसके दर्द की ही कहानी है।
द्विखंडितो जहां बाधाएं पार कर जिल्लत की जिंदगी सहते हुए एक मध्यमवर्गीय मुसलमान परिवार की लड़की के अपनी आत्मशक्ति का आविष्कार कर अप्रतिम तसलीमा बनने की कहानी है, वहीं निर्वासन उस अप्रतिम तसलीमा के पांवों में पड़ी अदृश्य जंजीरों व निरापद और एकाकी जीवन की दास्तां है। ऐसा जीवन, जिसमें उन्हें न किसी से मिलने की आजादी है, न लिखने की, न किसी से बात करने की, न घर से बाहर कदम रखने की। ऐसा जीवन, जिसमें वह जब भी खिड़की से बाहर झांकती हैं मौत दिखाई देती है। ऐसा जीवन, जिस पर 24 घंटे पुलिस का पहरा है। जहां अपने ही घर की दहलीज लांघने से पहले बड़े बाबू की इजाजत लेनी पड़ती है, पर कभी मिलती नहीं। जो कभी अपने ही घर में, तो कभी राजस्थान सरकार के गेस्ट हाउस में तो कभी अज्ञातवास में कैद है। जहां न बदलने को कपड़े हैं, न पढ़ने को किताबें, न जीवन साथी बन चुकी बिल्ली मीनू ही है। जिंदगी सिर्फ एक लैपटॉप की स्क्रीन से ‘रौशन’ है। और जहां सिर्फ और सिर्फ तनाव है, तनाव से बढ़ा हुआ रक्तचाप है। इससे उपजी बीमारियां हैं और उनके इलाज के लिए देश छोड़ने को मजबूर हुई तसलीमा हैं।
कहानी कलकत्ता से शुरू होती है। (तसलीमा के लिए यह कलकत्ता ही है, कोलकाता नहीं। क्योंकि कलकत्ता उनकी आत्मा में रचा-बसा है।) अचानक एक दिन’ कुछ लोग द्विखंडितो का विरोध शुरू करते हैं और हिंसा भड़क उठती है। यह विरोध धर्म को आहत करने, अनैतिकता और अश्लीलता फैलाने के नाम पर किया जाता है। यही विरोध और हिंसा पहले कलकत्ता से, फिर जयपुर से, फिर दिल्ली से और अंततः भारतवर्ष से उनके निर्वासन के कारण बनते हैं। यहां भारत की सहिष्णुता, अभिव्यक्ति की आजादी, मत प्रकट करने का संवैधानिक अधिकार सब कटघरे में हैं।
इसमें तसलीमा का मृत्यु से साक्षात्कार भी है, तो पुनर्जन्म भी। यह समाज की जिम्मेदारियों से ओवरलोड हो चुके मीडिया का आईना भी है और भावी पत्रकारों के लिए गंभीर सबक भी। इसमें मीडिया का गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार भी उजागर होता है, जिसके पीछे टीआरपी का भूत लगा है और कट्टरपंथियों की अमानवीयता भी है, जो तसलीमा के खून के प्यासे हैं। इसमें मनमोहन सरकार का दोहरा चरित्र भी सामने आता है, जब पूर्व राजनयिक और लेखक मदनजीत सिंह को लिखे आधिकारिक खत में प्रधानमंत्री कहते हैं कि तसलीमा अपनी मर्जी से भारत छोड़कर स्वीडन गई हैं। भारत ने हमेशा उनका स्वागत किया है। यहां उन पर किसी तरह का दबाव नहीं था।
निर्वासन के जरिए ही हमें वे हालात पता चलते हैं, जिनमें तसलीमा को द्विखंडितो के विवादित घोषित कर दिए गए अंश के छह पन्ने हटाने पड़े। यहां उनका गैलीलिओ को रेखांकित करना कि चर्च ही ठीक है कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूम रहा है, वे पन्ने हटाने की गहराई को उकेरता है। मन सबसे ज्यादा बेचैन तब हो उठता है, जब उन्हें गृहबंदी बनने, कोलकाता से जबरन जयपुर, जयपुर से दिल्ली, दिल्ली से अज्ञातवास और अंततः भारत छोड़ने को मजबूर कर दिया जाता है। हर जगह से दो दिन, कुछ दिन कहकर, मगर अनिश्चित काल के निर्वासन में छोड़कर।

Monday, August 18, 2014

सहारनपुर दंगों की रिपोर्ट और मीडिया


सहारनपुर दंगों पर यूपी के मंत्री शिवपाल यादव की अध्यक्षता वाली जांच कमेटी की रिपोर्ट और मीडिया में उसके प्रसारण-प्रकाशन से उपजे कुछ यक्ष प्रश्न


- किसी भी जांच समिति की रिपोर्ट के तथ्यों को क्या कहा जाता है?
- क्या वह उस कमेटी की फाइडिंग्स नहीं होती हैं?
- जांच समिति के निष्कर्ष आरोप कैसे हो सकते हैं?
- उन्हें आरोप बता प्रकाशित करना कितना सही है?
- किसी मीडिया समूह का रिपोर्ट के तथ्यों को आरोप लिखना, क्या उसकी निष्पक्षता और विश्वसनीयता पर सवाल खड़े नहीं करता?



ये सारे सवाल इसलिए खड़े हुए क्योंकि किसी भी अखबार और वेबसाइट ने शिवपाल कमेटी की रिपोर्ट की बातों को सीधे नहीं लिखा। किसी ने इन्हें 'आरोप' लिखा तो किसी ने 'भाजपा की भूमिका पर सवाल'। कंटेंट के मामले में वेबसाइट्स की विश्वसनीयता अभी अखबारों की तुलना में न के बराबर है। इसलिए जब हिंदी और अंग्रेजी के तमाम शीर्ष अखबारों की वेबसाइट्स ने ऐसा लिखा तो लगा कि अखबार कुछ बदलेंगे, पर अखबारों ने भी यही किया। इंडियन एक्सप्रेस तक ने शीर्षक में 'ब्लेम' शब्द का इस्तेमाल किया। माना कि कमेटी प्रतिद्वंद्वी दल के नेता की अध्यक्षता में बनाई गई थी, पर उसकी रिपोर्ट आरोप कैसे बन गई।
कोई मुझे इस दुविधा से निकलने में मदद करेगा? मेरा मानना है कि खबर की पैडिंग में दूसरी बातें हो सकती थीं।

Wednesday, June 16, 2010

ऐसा था फैसले का दिन

भोपाल गैस त्रासदी में निचली अदालत का फैसला आ चुका है। फैसले से सभी लोग खफा होंगे और गुस्से में भी। लेकिन मैं यहां न तो हमारी सुस्त न्याय प्रणाली पर कोई बात दोहराना चाहता हूं और न ही एंडरसन के करोड़ों-अरबों के वारे न्यारे का जिक्र करना चाहता हूं। मैं तो बस चंद वे बातें आपसे साझा करना चाहता हूं जो मैंने पिछले तीन दिनों के दौरान महसूस की। ये सारी बातें इस भीषण त्रासदी से अलग नहीं हैं। यदि आपके पास इसके लिए भीषण शब्द से भी भीषण कोई शब्द हो तो मुझे सुझाइगा जरूर। क्योंकि यह शब्द मुझे इस त्रासदी को त्रासदी कहने के लिहाज से बहुत छोटा लगता है।

बहरहाल आज की बात है तो फैसले से ही जुड़ी हुई लेकिन उस तरह नहीं जिस तरह अखबारों में खबरें छपीं। मैं इन दिनों भोपाल में ही हूं और संयोग से मुझे गैस पीड़ितों से मिलने, उनके साथ खाने-पीने, उस इलाके को देखने और उसकी आबो-हवा को महसूस करने का मौका मिला। खबरनवीस अपनी जगह हैं, वे अपने तरीके से खबरें देते हैं। मुझे उनसे कोई शिकवा नहीं है। इस मुद्दे पर अब तक कई बुद्धिजीवियों की कलम चल चुकी है। लेकिन मैं यहां किसी खबरनवीस या बुद्धिजीवी की हैसियत से नहीं बल्कि मुल्क के एक संवेदनशील और सिस्टम द्वारा प्रताड़ित शख्स की हैसियत से ये सारी बातें आपसे साझा करना चाहता हूं। ये बातें उस वक़्त की हैं, जब अदालत में फैसले की कार्रवाई चल रही थी। ये बातें उस समय की हैं, जब लोग धारा 144 को धता बताते हुए झुंड के झुंड में अदालत के बाहर जमावड़ा लगाये हुए थे। ये बातें उस समय की भी हैं, जब मध्यप्रदेश पुलिस की इतनी हिमाकत हो गयी कि उसने वरिष्ठ पत्रकार और इस मामले में सबसे पुराने कार्यकर्ता राजकुमार केसवानी की गिरेबान तक में हाथ डाल दिया और उनके साथ धक्का-मुक्की हुई।

दरअसल फैसले की सुबह मैं भोपाल के जेपी नगर, कैंची छोला, रिसालदार कॉलोनी, राजेंद्र नगर और यूनियन कार्बाइड कारखाने के ही चक्कर लगा रहा था। ये सभी गैस से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों में हैं। मैं वहां इस बात की टोह लेने पहुंचा था कि कहीं गुस्साये लोग कोई प्रदर्शन या धरने की तैयारी तो नहीं कर रहे हैं। लेकिन वहां ऐसा कुछ भी नहीं था। फैसले के दिन की सुबह रोजाना जैसी थी भी और नहीं भी। जब वहां कोई धरना प्रदर्शन नहीं हो रहा था, तो बड़ा सवाल यह है कि आखिर उस सुबह वहां हो क्या रहा था।

यूनियन कार्बाइड कारखाने के सामने चिलचिलाती धूप में तपती उस औरत का वह स्टेच्यू आज जैसे अकेले ही अदालत के फैसले के इंतजार में था। यह स्टेच्यू हादसे के बाद बनाया गया था। जेपी नगर की सुबह आज कुछ ज्यादा अलग नहीं थी। रोजाना की तरह आज भी लोग अपने-अपने काम पर चले गये थे। लड़कों का झुरमुट जो शायद स्टेच्यू के पास वाली दुकान पर बैठने के लिए ही बना था, आज भी वैसे ही गपबाजी कर रहा था। वहीं पास में चौकड़ी लगाये कुछ आदमी ताशों के सहारे अपना वक्त काट रहे थे। लेकिन इन सबके बीच जेपी नगर की हवा में यूनियन कार्बाइड की 25 साल पुरानी वह गैस जैसे आज फिर से फैल रही थी। फर्क सिर्फ इतना था कि आज उसकी रफ्तार बहुत धीमी थी। दरअसल वक्त की रफ्तार के आगे वह हार मान चुकी थी।

ताश खेलते लोगों के बीच अदालत के फैसले को लेकर न तो बहुत उत्साह था और न ही बहुत ज्यादा मायूसी। उनके बीच फैसले की छुटपुट बातें तो हो रही थीं लेकिन वे तो अपना फैसला जैसे बहुत पहले ही सुना चुके थे। अब उनमें से ज्यादातर लोग उस बारे में बात करने के इच्छुक नहीं थे। घूम-फिरकर जुबां पर मुआवजे की बातें ही आ जाती थीं। तभी पास की चाय वाली गुमटी से गालियों की आवाजें सुनाई पड़ीं। गुमटी में जाकर चाय पीते हुए उनमें घुल मिल जाने पर मालूम हुआ कि ये ‘श्रीवचन’ वॉरेन एंडरसन के लिए थे। फिर मेरे अनजानेपन को दूर करते हुए 30 साल का एक नौजवान अतीत को याद करते हुए बताने लगा कि उस रात गैस को जमीन पर चलते हुए साफ देखा जा सकता था। इतने में एक दूसरा लड़का बोल उठा, तब हिंदू मुसलमान सब बराबर थे। बस लाशों के ढेरों को जलाया और दफनाया जा रहा था। उफ! वह कितना खौफनाक मंजर था। तभी तीसरा लड़का बताने लगा, अरे वह बबली याद है? कैसे वह भैंसों के बीच दबी हुई थी और अल्लाह का शुक्र है कि वो जिंदा थी। जबकि सारी भैंसे मर चुकी थीं। फिर अदालत के फैसले की बात करते हुए वे कहने लगे, एंडरसन इतना पैसा दे चुका है, अब उसे क्या सजा होगी। उस दिन के बाद वह इधर दिखाई नहीं दिया वरना उसका निपटारा तो तभी कर देते। इतने में चाय बनाने वाली अम्मा अपना दर्द बांटने लगी। वह कहने लगी कि कुछ मुआवजा मिले तो हम बूढ़े लोगों का गुजारा हो। गुमटी के बाहर जिंदगी अपनी रफ्तार से चल रही थी। बच्चे और महिलाएं पानी के लिए लाइन में लगे हुए थे। इस बीच एक फेरी वाला आ गया और वे सूट देखने में व्यस्त हो गयीं।

यूनियन कार्बाइड कारखाने में आज सुरक्षा बढ़ा दी गयी थी। आम दिनों में यहां 30 सुरक्षाकर्मी होते हैं लेकिन आज इनकी तादाद लगभग 150 थी। ये कारखाने के अलग अलग दरवाजों पर खाटों पर आराम फरमाते हुए पहरेदार थे। हालांकि एएसआई वीके सिंह इस बात से इनकार करते हैं कि इतनी सुरक्षा आज ही बढ़ायी गयी है। उनके मुताबिक रोजाना इस कारखाने की सुरक्षा में इतने ही लोग रहते हैं। जबकि दो दिन पहले ही कारखाने के सुरक्षाकर्मियों ने मुझे बताया था कि यहां रोजाना 30 लोगों की ड्यूटी रहती है।

कैंची छोला में अपनी दो जून की रोटी के लिए राशन की लाइन में लगे लोग सार्वजनिक बात से बेखबर दिखाई दिये कि अदालत का कोई फैसला भी आने वाला है। उनके बीच पड़ोसियों के झगड़े और काम धंधे की बातें होती रहीं। लगभग यही हाल राजेंद्र नगर इलाके का भी रहा। हां, छोला फाटक से दस कदम की दूरी पर एक मिठाई की दुकान पर लोगों में उत्सुकता थी कि फैसला क्या हुआ। सवा बारह से साढ़े बारह बजे तक आने वाला हर आदमी पूछ रहा था क्यों क्या फैसला हुआ। कयास लगाये जा रहे थे, जुर्माना हुआ होगा। उनके पास सिर्फ इतनी खबर थी कि फैसला आ चुका है। वे टीवी पर पल पल की खबर देखना चाहते थे लेकिन मजबूर थे, बिजली नहीं थी।

रिसालदार कॉलोनी पहुंचते पहुंचते एक बज चुका था। गलियों में इक्का दुक्का लोग ही बैठे नजर आये। यहां भी आज का फैसला किसी बड़ी चर्चा का विषय नहीं बन पाया था। शब्बन चचा ने बताया कि लोगों में हल्की फुल्की बातें तो सुबह हो रही थीं कि आज फैसला आने वाला है। लेकिन उसके बाद सभी अपने अपने काम पर निकल गये। उनका कहना था कि जब कोई मुआवजा ही नहीं तो फिर किस बात का फैसला। वहीं रिसालदार कॉलोनी के सुमित की दुकान लड़कों का अड्डा बनी हुई है। इस दुकान पर कानूनी पेचीदगियों की बातें सुनने को मिलीं। वहां चर्चा हो रही थी कि सजा ज्यादा से ज्यादा तीन साल की हो सकती है। उसके बाद भी वे अपील कर सकते हैं। तो फैसला किस बात का। बस जल्दी से जल्दी मुआवजा मिलना चाहिए। वैसे भी समय निकलता जा रहा है, तो सजा का कोई मतलब नहीं रहा। इनके बीच भी बिजली न होने का अफसोस दिखाई दिया। अब सभी को एक साथ तीन चीजों का इंतजार था। दो बजने का, बिजली आने का और भोपाल के गुनहगारों को हुई सजा सुनने का।

Thursday, April 1, 2010

एक तलाश: तुझमें अपनी

सफर शुरू होने से
मंज़िल पर पहुंचने तक
खुद को अकेला ही पाता हूं
बीच राहों में
अकेले चलते, तन्हा भटकते
तेरे निशां पाता हूं
जाने क्यूं मैं सदा
अपने अस्तित्व को
तुझमें तलाशता हूं
जाने क्यूं तुझमें
अपना ही अक्स
मैं अक्सर ढूंढा करता हूं
पाता भी हूं
हां ! पाता भी हूं
खुद को
तुझ में
लेकिन
पाकर भी
तुझमें खुद को
मैं नहीं खुद को तुझमें पाता हूं...

Friday, March 19, 2010

राजस्थान पत्रिका के एक लेख पर प्रतिक्रिया स्वरूप



आरक्षण के विकल्प : कितने सही कितने ग़लत
विनय भार्गव का लेख ‘आरक्षण के विकल्प और भी’ पढ़ा। इसमें लेखक ने आरक्षण के कुछ विकल्प सुझाए हैं। लेकिन साथ ही लेखक ने अपनी कुछ चिंताएं भी जाहिर की हैं। उनकी इस चिंता पर चिंता होती है कि वह इतनी व्यर्थ चिंता क्यों कर रहे हैं। भार्गव जी ने चिंता जताई है कि आरक्षित सीट से जीतने वाली महिलाएं अपने निर्वाचन क्षेत्र के विकास पर ध्यान नहीं देंगी। इसका कारण वह अगले चुनाव में उस सीट का उसी महिला के लिए आरक्षित ना होना बताते हैं।
उनके इस विचार के निहितार्थ हैं कि यदि कोई व्यक्ति राजनीति में आना चाहता है तो निजी स्वार्थों के चलते ना कि सामाजिक विकास की खातिर। उनके तर्क में यही प्रतिध्वनित होता है कि यदि किसी एक निर्वाचन क्षेत्र से कोई एक सीट किसी एक महिला के लिए एक बार आरक्षित कर भी दी गई तो आशंका यही है कि उसे दोबारा उस सीट से टिकट नहीं मिलेगा। इसी कारण वह अपने क्षेत्र के विकास पर ध्यान ना देकर ‘निजी विकास’ पर केन्द्रित हो जाएगी।
लेकिन हम शायद पिछले साल के लोकसभा चुनावों में राजनीति में आए एक बड़े बदलाव को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। हमारे यहां वोटों का ध्रुवीकरण जाति और धर्म के नाम पर होता रहा है। लेकिन यदि पिछले लोकसभा चुनावों की बात करें तो इसमें वोट बटोरने का एक नया चलन सामने आया। इन चुनावों में विकास के नाम पर जमकर वोट मांगे गए। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने विकास के नाम पर ही 23 सीटों पर जीत दर्ज की। इतना ही नहीं यही चलन विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिला। नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों में विकास एक अहम मुद्दा बनकर उभर रहा है।
अब भार्गव जी के तर्क की ओर वापस लौटते हैं। उनकी तरह हम यह मान लेते हैं कि हर कोई सत्ता सुख भोगना चाहता है। जब हर उम्मदीवार यह चाहता है कि जिस सीट से वह एक बार विजयी हो जाए तो उस सीट पर उसकी ही बादशाहत कायम हो जाए। तब एक महिला पर यही बात लागू क्यों नहीं हो सकती? ज़ाहिर है यदि उस महिला को दोबारा सत्ता में आना है तो वह बड़े स्तर पर काम करेगी।
भार्गव जी की एक ओर चिंता है कि पार्टी उस महिला को दोबारा टिकट ही नहीं देगी। उनकी यह चिंता जायज़ है। वैसे भी पार्टियों के पास जिताऊ महिला उम्मीदवार हैं ही नहीं। लेकिन भाजपा ने पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देकर यह पहल भी कर दी है। अब देखादेखी बाकी पार्टियां भी महिला उम्मीदवारों को तैयार कर ही लेंगी। पार्टी को हमेशी ही एक जिताऊ उम्मीदवार की तलाश होती है। पार्टी की तलाश उस महिला पर खत्म हो जाती है जिसने उस सीट पर अपनी दबदबा बनाने के मकसद से अपने निर्वाचन क्षेत्र में जमकर काम किया है। अगर उसके जीतने की संभावनाएं बलवती हैं तो पार्टी क्यों नहीं उसे टिकट देगी?
भार्गव जी का महिला आरक्षण के उपाय सुझाते हुए अपनी ही बातों से विरोधाभास दिखाई देता है। एक तरफ तो उन्हें महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने में समाज का विकास होता दिखाई नहीं देता। दूसरी तरफ वह उन्हीं महिलाओं के लिए आरक्षण की इस व्यवस्था को 15 से बढ़ाकर 30 वर्ष करने की वकालत करते हैं। संविधान में अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था शुरूआती 10 सालों के लिए ही की गई थी। लेकिन नतीजा सामने है।
लोकसभा और विधानसभा की सीटों को बढ़ाने वाले उपाय पर ग़ौर किया जा सकता है। विदेशों की तुलना में जनसंख्या के अनुपात में हमारे यहां लोकसभा और विधानसभा सीटें कम ही हैं। लेकिन अंतिम उपाय जिसमें वह आरक्षित सीटों को द्विसदस्यीय करने की बात करते हैं, समुचित नहीं लगता। कुछ सीटों को द्विसदस्यीय करने से समस्या हल होने बजाय बढ़ेगी ही।
ऐसे में इस विधेयक की मूल भावना (राजनीतिक भावना को छोड़कर) ही खत्म हो जाएगी। यदि यह विधेयक कानून बनता है तो यह भारतीय समाज में एक बड़े बदलाव का अगुवा होगा। इससे पुरूष प्रधान सामाजिक ढ़ांचे में बदलाव होगा। इससे नारी को घरेलू कामकाज का साधन समझने वाली पुरुष सत्तात्मक सोच में बदलाव होगा। यह स्त्री जाति को विस्तार देने वाला विधेयक है। शायद इसीलिए विकृत पुरुष मस्तिष्क इससे इतना डरा हुआ है।

Monday, February 15, 2010


दो लफ़्ज़...
तुम्हारे वो दो लफ़्ज़…
समा गए हैं
इस दिल में,
इस दिल की धड़कनों में
गूंजते हैं कानों में
तुम्हारे वो दो लफ़्ज़...
तन्हा खोती ज़िन्दगी में
नए जीवन की तलाश हैं
हमसफर हैं
इस नए सफर में
तुम्हारे वो दो लफ़्ज़...
कब से तमन्ना थी
तुम्हारे होठों को
छूकर निकलें
चंद लफ़्ज़
मेरी ख़ातिर
उन लफ़्ज़ों में
पाया मैंने सारा जहां
बस अब कोई तमन्ना ना रही
समझो के हर हसरत दिल की पूरी हुई
मेरी ज़िंदगी में बहार लाए हैं
तुम्हारे वो दो लफ़्ज़
मेरी ज़िंदगी बन गए हैं
तुम्हारे वो दो लफ़्ज़
तुम्हारे वो दो लफ़्ज़