Friday, March 19, 2010
राजस्थान पत्रिका के एक लेख पर प्रतिक्रिया स्वरूप
आरक्षण के विकल्प : कितने सही कितने ग़लत
विनय भार्गव का लेख ‘आरक्षण के विकल्प और भी’ पढ़ा। इसमें लेखक ने आरक्षण के कुछ विकल्प सुझाए हैं। लेकिन साथ ही लेखक ने अपनी कुछ चिंताएं भी जाहिर की हैं। उनकी इस चिंता पर चिंता होती है कि वह इतनी व्यर्थ चिंता क्यों कर रहे हैं। भार्गव जी ने चिंता जताई है कि आरक्षित सीट से जीतने वाली महिलाएं अपने निर्वाचन क्षेत्र के विकास पर ध्यान नहीं देंगी। इसका कारण वह अगले चुनाव में उस सीट का उसी महिला के लिए आरक्षित ना होना बताते हैं।
उनके इस विचार के निहितार्थ हैं कि यदि कोई व्यक्ति राजनीति में आना चाहता है तो निजी स्वार्थों के चलते ना कि सामाजिक विकास की खातिर। उनके तर्क में यही प्रतिध्वनित होता है कि यदि किसी एक निर्वाचन क्षेत्र से कोई एक सीट किसी एक महिला के लिए एक बार आरक्षित कर भी दी गई तो आशंका यही है कि उसे दोबारा उस सीट से टिकट नहीं मिलेगा। इसी कारण वह अपने क्षेत्र के विकास पर ध्यान ना देकर ‘निजी विकास’ पर केन्द्रित हो जाएगी।
लेकिन हम शायद पिछले साल के लोकसभा चुनावों में राजनीति में आए एक बड़े बदलाव को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। हमारे यहां वोटों का ध्रुवीकरण जाति और धर्म के नाम पर होता रहा है। लेकिन यदि पिछले लोकसभा चुनावों की बात करें तो इसमें वोट बटोरने का एक नया चलन सामने आया। इन चुनावों में विकास के नाम पर जमकर वोट मांगे गए। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने विकास के नाम पर ही 23 सीटों पर जीत दर्ज की। इतना ही नहीं यही चलन विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिला। नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों में विकास एक अहम मुद्दा बनकर उभर रहा है।
अब भार्गव जी के तर्क की ओर वापस लौटते हैं। उनकी तरह हम यह मान लेते हैं कि हर कोई सत्ता सुख भोगना चाहता है। जब हर उम्मदीवार यह चाहता है कि जिस सीट से वह एक बार विजयी हो जाए तो उस सीट पर उसकी ही बादशाहत कायम हो जाए। तब एक महिला पर यही बात लागू क्यों नहीं हो सकती? ज़ाहिर है यदि उस महिला को दोबारा सत्ता में आना है तो वह बड़े स्तर पर काम करेगी।
भार्गव जी की एक ओर चिंता है कि पार्टी उस महिला को दोबारा टिकट ही नहीं देगी। उनकी यह चिंता जायज़ है। वैसे भी पार्टियों के पास जिताऊ महिला उम्मीदवार हैं ही नहीं। लेकिन भाजपा ने पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देकर यह पहल भी कर दी है। अब देखादेखी बाकी पार्टियां भी महिला उम्मीदवारों को तैयार कर ही लेंगी। पार्टी को हमेशी ही एक जिताऊ उम्मीदवार की तलाश होती है। पार्टी की तलाश उस महिला पर खत्म हो जाती है जिसने उस सीट पर अपनी दबदबा बनाने के मकसद से अपने निर्वाचन क्षेत्र में जमकर काम किया है। अगर उसके जीतने की संभावनाएं बलवती हैं तो पार्टी क्यों नहीं उसे टिकट देगी?
भार्गव जी का महिला आरक्षण के उपाय सुझाते हुए अपनी ही बातों से विरोधाभास दिखाई देता है। एक तरफ तो उन्हें महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने में समाज का विकास होता दिखाई नहीं देता। दूसरी तरफ वह उन्हीं महिलाओं के लिए आरक्षण की इस व्यवस्था को 15 से बढ़ाकर 30 वर्ष करने की वकालत करते हैं। संविधान में अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था शुरूआती 10 सालों के लिए ही की गई थी। लेकिन नतीजा सामने है।
लोकसभा और विधानसभा की सीटों को बढ़ाने वाले उपाय पर ग़ौर किया जा सकता है। विदेशों की तुलना में जनसंख्या के अनुपात में हमारे यहां लोकसभा और विधानसभा सीटें कम ही हैं। लेकिन अंतिम उपाय जिसमें वह आरक्षित सीटों को द्विसदस्यीय करने की बात करते हैं, समुचित नहीं लगता। कुछ सीटों को द्विसदस्यीय करने से समस्या हल होने बजाय बढ़ेगी ही।
ऐसे में इस विधेयक की मूल भावना (राजनीतिक भावना को छोड़कर) ही खत्म हो जाएगी। यदि यह विधेयक कानून बनता है तो यह भारतीय समाज में एक बड़े बदलाव का अगुवा होगा। इससे पुरूष प्रधान सामाजिक ढ़ांचे में बदलाव होगा। इससे नारी को घरेलू कामकाज का साधन समझने वाली पुरुष सत्तात्मक सोच में बदलाव होगा। यह स्त्री जाति को विस्तार देने वाला विधेयक है। शायद इसीलिए विकृत पुरुष मस्तिष्क इससे इतना डरा हुआ है।
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सबको अपना अपना हिस्सा दे दो, किस्सा खत्म.
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