
मंज़िल पर पहुंचने तक
खुद को अकेला ही पाता हूं
बीच राहों में
अकेले चलते, तन्हा भटकते
तेरे निशां पाता हूं
जाने क्यूं मैं सदा
अपने अस्तित्व को
तुझमें तलाशता हूं
जाने क्यूं तुझमें
अपना ही अक्स
मैं अक्सर ढूंढा करता हूं
पाता भी हूं
हां ! पाता भी हूं
खुद को
तुझ में
लेकिन
पाकर भी
तुझमें खुद को
मैं नहीं खुद को तुझमें पाता हूं...
vikas ye photo rajnish ka hai kya.
ReplyDeletekuch rahe esi hoti hai jin par akela hi chalna hota hai. samjhe
ReplyDeletetumhara dil tut gaya hai kya? ya phir kisi bhoot ka jikr kar rahe ho.
ReplyDeleteyahi to jeevan hai , sundar kavita
ReplyDelete"पाता भी हूं
ReplyDeleteखुद को
तुझ में
लेकिन
पाकर भी
तुझमें खुद को
मैं नहीं खुद को तुझमें पाता हूं..."
kya baat hai ji...
kunwar ji,
जाते जाते भावनाओं का ज्वालामुखी फूटने वाला है लगता है....विचार करो इस पर....कह डालो अब।
ReplyDeleteवाह .. बढिया !!
ReplyDeleteबहुत अच्छा..भावपूर्ण रचना...
ReplyDeletewaah kya baat hai...bahut khoob
ReplyDeleteबहुत से गहरे एहसास लिए है आपकी रचना .
ReplyDeleteअच्छा प्रयास ....स्वागत है ....!!
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