इंसान जब संघर्ष करते हुए विजय हासिल करता है तो उसके हौंसले बुलंद होते हैं। लगातार 23 साल तक पश्चिम बंागाल के मुख्यमंत्री रहने वाले ज्योति बसु संघर्ष की ज़मीन पर सफलता की इमारत गढ़ने वाले एक जुझारू नेता थे। ऊंचे कुल में जन्मे बसु 1935 में बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए। वहां कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन के आरपी दत्त और हैरी पोलित जैसे कम्यूनिस्ट नेताओं के संपर्क में आए। 1940 में वतन लौटकर कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया में शामिल हो गए। 1964 में सीपीआई में वैचारिक मतभेद उभरे और उन्होंने विभाजित सीपीएम की कमान संभाली।
वह दुनिया को अलविदा कह गए। उनके जाने पर चारों ओर से एक ही आवाज़ सुनाई दी। एक युग का अंत। ज्योति दा का जाना वाकई राजनीति के एक युग का अंत है। पोलित ब्यूरो भी अपने आखिरी संस्थापक सदस्य के बिना सूना सा हो गया है।
ज्योति दा के बारे में कहा जाता है कि वह कम्यूनिस्ट थे भी और नहीं भी। दरअसल वह स्वभाव से एक सज्जन व्यक्ति थे। जब कभी कम्यूनिस्ट विचारधारा और उनकी सज्जनता के बीच द्वंद्व की स्थिति आती वह बेहिचक सज्जनता के रास्ते पर चलते। उनके लिए पार्टी का फैसला ही सर्वोच्च फैसला रहा है।
1966 में पार्टी के फैसले पर ही उन्होंने प्रधानमंत्री पद को ठुकरा दिया था। आज जब एक विधायक तक बनने के लिए वोटरों की और मुख्यमंत्री बनने के लिए विधायकों की खरीद फरोख्त आम बात हो गई है, तब ज्योति दा जैसे नेता बिरले ही मिलते हैं। हालांकि बाद में उन्होंने प्रधानमंत्री पद को ठुकराना अपनी ऐतिहासिक महाभूल बताया। फिर हिंदुस्तान की डायरी के उस काले पन्ने को कौन भूल सकता है, जब संसद में नोटों की गड्डियां लहराई गई।
वह ज्योति बसु ही थए जिन्होंने ख़ुद अपनी मर्ज़ी से मुख्यमंत्री पद को छोड़ दिया और जनता से अपना उत्तराधिकारी चुनने को कहा। 1952 में पहली बार उन्होंने बंगाल विधानसभा में प्रवेश किया और सन् 2000 तक वह लगातार विधानसभा चुनाव जीतते रहे। 1977 में वह बंगाल के मुख्यमंत्री बने।
उनके राजनीतिक करियर में सबसे अच्छा वक़्त वह माना जाता है जब वह विपक्ष के नेता थे। उन दिनों ज्योति बसु का मतलब था जनसमस्याओं से गहरा जुड़ाव और प्रशासन की संवेदनहीनता और अकुशलता का तीखा विरोध। हालांकि उनके मुख्यमंत्री रहते हुए बंगाल के हज़ारों कल कारखाने बंद हुए, लाखों की तादाद में लोग बेरोजगार हुए। प्राथमिक स्तर पर अंग्रेज़ी ख़त्म करने का बसु सरकार का फैसला आज भी बंगाल के पिछड़ेपन का कारण माना जाता है। लेकिन उन्होंने बंगाल में भूमि सुधारों के जरिए किसानों को उनका जीवन लौटाया। वह मुख्यमंत्री होते हुए भी सीटू के अध्यक्ष बने रहे और किसानों के संघर्ष में सक्रिय भागीदारी निबाहते रहे।
लेकिन यह ज्योति दा की धर्मनिरपेक्षता और साप्रदायिक सद्भाव के प्रति प्रतिबद्धता ही थी कि 84 के सिख विरोधी दंगों में बंगाल के सिख पूरी तरह महफूज थे। बाबरी विध्वंस के बाद भड़के दंगों से भी बंगाल बेअसर रहा।
एक तरफ उनकी नीतियों को बंगाल के पिछड़ेपन का कारण माना जाता है तो दूसरी तरफ वह बंगाल के भद्रलोक और एक सच्चे कम्यूनिस्ट कहे जाते रहे हैं। लेकिन आज बंगाल की ज्योति बुझ गई है और इसके साथ ही सीपीएम में अंधकार छा गया है। आज सीपीएम जिस तरह अपनी ही विचारधारा के द्वंद्व में फंसी नज़र आ रही है वह किसी अंधेरे से कम नहीं।
lajawaab ... journalist jaldi banoge dost lage raho
ReplyDeleteमुझे दुख है उनकी मृत्यु का।
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