Wednesday, January 20, 2010

चक्र सुदर्शन डोल रहा...करता नए प्रयोग...


जब कवियों का गान हो, सुधी श्रोताओं का मान हो और अपने गणतंत्र का गान हो तो माहौल देखते ही बनता है। रातों को सूनी हो जाने वाली लाल किले की दीवारें तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठती हैं। रात का सन्नाटा हंसी की फुहारों से गुलज़ार हो जाता है। लाल किले में लगाया गया पांडाल खचाखच भरा रहता है। यह कोई एक दो साल की बात नहीं है। गणतंत्र दिवस कवि सम्मेलन की यह परंपरा पिछले तीस सालों से चली आ रही है।
देश के कोने कोने से आने वाले कवियों को सुनने के लिए साहित्य प्रेमी सर्दी को धता बताते हुए खिंचे चले आते हैं। ना तो सर्द रातों में बहने वाली शीत लहर ही इन्हें रोक पाती है और ना ही सुबह तीन बजे हो जाने वाला घना कोहरा ही इन्हें डराता है। मैं भी पिछले चार सालों से दिल लुभा लेने वाले इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनता आ रहा हूं। हर साल हास्य, ओज, वीर, और श्रृंगार रसों की कविताएं श्रोताओं को भाव विभोर करती हैं।
कुछ जाने पहचाने बड़े नामों का हर बार इंतज़ार रहता है। मसलन अशोक चक्रधर, आलोक पुराणिक, कन्हैया लाल नंदन, उदय प्रताप सरीखे बड़े नाम। लेकिन एक कवि की कमी इस दफा ना सिर्फ श्रोताओं को खली बल्कि मंच भी उनके बिना उपजे सूनेपन को छुपा ना पाया। ओमप्रकाश आदित्य के छंद अब कभी इस मंच से नहीं पढ़े जा सकेंगे। याद हो कि पिछले साल एक सड़क हादसे में उनकी मौत हो गई थी।
उन्हें याद कर मंच संचालन कर रहे बालकवि बैरागी का गला भर आया और आंखें नम हो गई। भावभीनी श्रद्धांजलि के बाद एक बार फिर लाल किला बसंत का स्वागत करने को आतुर दिखा। सारा माहौल बसंत के मदनोत्सव और हास्य व्यंग्य के मिले जुले रंग में रंगता नज़र आया।
इस बार के इस कवि सम्मेलन में कुछ ख़ास बात हुई जिसने मुझे इस पर लिखने को मजबूर कर दिया। जो कवि लाल किले से अपनी कविताओं का पाठ करता है वह खुद को धन्य समझने लगता है। हर बार कुछ नए कविगण भी होते हैं, बस इस दफा नए कवियों की तादाद कुछ ज़्यादा थी। सही भी है नए लोगों को भी मौके दिए जाने चाहिएं। फिर क्या फर्क पड़ता है कि वे अपनी ख़ूबसूरत रचनाओं के कारण यहां पहुंचे हों या अपने संपर्कों के कारण। आखिर ज़माना भी तो नया है।
एक और चौंकाने वाला वाकया हुआ। अशोक चक्रधर। अपने आप में एक बड़ा नाम। जितना बड़ा पद उतना उतना छोटा कद। मंच से जिस तरह की बयानबाजी इस कुंडलीधारी कवि के मुखमंडल से की गई उसने उनके कद को छोटा कर दिया। राजनीति और सरकारों पर व्यंग्य होते तो इस मंच से सुना था लेकिन किसी शुद्ध राजनीतिझ की बड़ाई होते हुए पहली बार सुना। और वह भी ऐसी शख़्सियत जो राष्ट्रमंडल खेलों और सरकारी निधि का अपने चुनावी अभियान के लिए ग़लत इस्तेमाल को लेकर चौतरफा आलोचनाएं झेल रही है।
चक्र सुदर्शन चाहे अपनी निजी ज़िंदगी में उन्हीं के चक्कर लगाता हो लेकिन कम से कम ऐसे प्रतिष्ठित मंच पर तो खुद पर काबू रखना चाहिए था। पर...
कर्ज का बोझ है, ढ़ोया नहीं जाता
उतार फेंक दूं इसे, मेरा है क्या जाता
मेरा है क्या जाता, चाहे जैसे चुकाउं
करूं चाहे जिसका प्रयोग, चाहे हो जो भी योग
चक्र सुदर्शन डोल रहा, करता नए प्रयोग...
करता नए प्रयोग...

भद्र लोक का अस्त और सूना पोलित बयूरो

इंसान जब संघर्ष करते हुए विजय हासिल करता है तो उसके हौंसले बुलंद होते हैं। लगातार 23 साल तक पश्चिम बंागाल के मुख्यमंत्री रहने वाले ज्योति बसु संघर्ष की ज़मीन पर सफलता की इमारत गढ़ने वाले एक जुझारू नेता थे। ऊंचे कुल में जन्मे बसु 1935 में बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए। वहां कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन के आरपी दत्त और हैरी पोलित जैसे कम्यूनिस्ट नेताओं के संपर्क में आए। 1940 में वतन लौटकर कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया में शामिल हो गए। 1964 में सीपीआई में वैचारिक मतभेद उभरे और उन्होंने विभाजित सीपीएम की कमान संभाली।
वह दुनिया को अलविदा कह गए। उनके जाने पर चारों ओर से एक ही आवाज़ सुनाई दी। एक युग का अंत। ज्योति दा का जाना वाकई राजनीति के एक युग का अंत है। पोलित ब्यूरो भी अपने आखिरी संस्थापक सदस्य के बिना सूना सा हो गया है।
ज्योति दा के बारे में कहा जाता है कि वह कम्यूनिस्ट थे भी और नहीं भी। दरअसल वह स्वभाव से एक सज्जन व्यक्ति थे। जब कभी कम्यूनिस्ट विचारधारा और उनकी सज्जनता के बीच द्वंद्व की स्थिति आती वह बेहिचक सज्जनता के रास्ते पर चलते। उनके लिए पार्टी का फैसला ही सर्वोच्च फैसला रहा है।
1966 में पार्टी के फैसले पर ही उन्होंने प्रधानमंत्री पद को ठुकरा दिया था। आज जब एक विधायक तक बनने के लिए वोटरों की और मुख्यमंत्री बनने के लिए विधायकों की खरीद फरोख्त आम बात हो गई है, तब ज्योति दा जैसे नेता बिरले ही मिलते हैं। हालांकि बाद में उन्होंने प्रधानमंत्री पद को ठुकराना अपनी ऐतिहासिक महाभूल बताया। फिर हिंदुस्तान की डायरी के उस काले पन्ने को कौन भूल सकता है, जब संसद में नोटों की गड्डियां लहराई गई।
वह ज्योति बसु ही थए जिन्होंने ख़ुद अपनी मर्ज़ी से मुख्यमंत्री पद को छोड़ दिया और जनता से अपना उत्तराधिकारी चुनने को कहा। 1952 में पहली बार उन्होंने बंगाल विधानसभा में प्रवेश किया और सन् 2000 तक वह लगातार विधानसभा चुनाव जीतते रहे। 1977 में वह बंगाल के मुख्यमंत्री बने।
उनके राजनीतिक करियर में सबसे अच्छा वक़्त वह माना जाता है जब वह विपक्ष के नेता थे। उन दिनों ज्योति बसु का मतलब था जनसमस्याओं से गहरा जुड़ाव और प्रशासन की संवेदनहीनता और अकुशलता का तीखा विरोध। हालांकि उनके मुख्यमंत्री रहते हुए बंगाल के हज़ारों कल कारखाने बंद हुए, लाखों की तादाद में लोग बेरोजगार हुए। प्राथमिक स्तर पर अंग्रेज़ी ख़त्म करने का बसु सरकार का फैसला आज भी बंगाल के पिछड़ेपन का कारण माना जाता है। लेकिन उन्होंने बंगाल में भूमि सुधारों के जरिए किसानों को उनका जीवन लौटाया। वह मुख्यमंत्री होते हुए भी सीटू के अध्यक्ष बने रहे और किसानों के संघर्ष में सक्रिय भागीदारी निबाहते रहे।
लेकिन यह ज्योति दा की धर्मनिरपेक्षता और साप्रदायिक सद्भाव के प्रति प्रतिबद्धता ही थी कि 84 के सिख विरोधी दंगों में बंगाल के सिख पूरी तरह महफूज थे। बाबरी विध्वंस के बाद भड़के दंगों से भी बंगाल बेअसर रहा।
एक तरफ उनकी नीतियों को बंगाल के पिछड़ेपन का कारण माना जाता है तो दूसरी तरफ वह बंगाल के भद्रलोक और एक सच्चे कम्यूनिस्ट कहे जाते रहे हैं। लेकिन आज बंगाल की ज्योति बुझ गई है और इसके साथ ही सीपीएम में अंधकार छा गया है। आज सीपीएम जिस तरह अपनी ही विचारधारा के द्वंद्व में फंसी नज़र आ रही है वह किसी अंधेरे से कम नहीं।

Tuesday, January 19, 2010

वो चला गया...


वो जो प्रधानमंत्री न बन सका,
वो जो कम्यूनिस्ट था भी और नहीं भी,
वो जो सज्जनता की मिसाल था,
वो जो संघर्ष की मिसाल था,
वो जो पार्टी का असली काडर था,
वो जो त्याग की प्रतिमूर्ति था,
वो जो पार्टी का फैसला सर्वोच्च मानता था,
वो जो राजनीति का अमूल्य निधि था,
वो जो राजनीति की अनुकरणीय विधि था,
वो जो ऊंचे कुल में जन्मा पर ज़मीन से जुड़ा रहा,
वो जो ग़रीबों के हक़ की लड़ाई लड़ता चला गया,
वो जो बंगाल की नवज्योति था, चला गया,
वो जो सज्ज्न कम्यूनिस्ट था चला गया,
वो चला गया, वो चला गया, वो चला गया...

Thursday, January 14, 2010

बाज़ारू होता मीडिया और बदलती भाषा

हर समाज की अपनी एक भाषा होती है। उस समाज का मीडिया या जनसंचार के माध्यम लोगों तक सूचनाएं पहुंचाने के लिए उसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। हर समाज उत्तरोत्तर विकास करता है। समाज के विकास के साथ साथ उसकी भाषा का भी विकास होता रहा है। इस भाषाई विकास को लेकर कई विमर्श हैं। आजकल मीडिया में इस्तेमाल की जा रही हिंदी को लेकर भी मीडिया में भी एक विमर्श छिड़ा हुआ है।
मीडिया का काम है जनता तक सूचनाओं का संचार करना। संचार के लिए किसी भाषा का होना ज़रूरी है। लेकिन सवाल यह उठता है कि यह भाषा कैसी हो। ‘आम बोलचाल की भाषा ही हमारी भाषा होनी चाहिए’ यह मीडिया का सबसे प्रिय जुमला है। इस आम बोलचाल की भाषा के मानक हर मीडिया समूह के लिए अलग अलग हो गए हैं। बहुत हद तक संभव है कि उनका आमो-ख़ास का नज़रिया भी बदल जाता हो।
इस बदलते परिवेश में हिंदी अख़बारों की बदलती हिंदी पर मीडिया के ही एक हिस्से से चिंताएं जताई जा रही हैं। चिंता ख़स तौर पर हिंदी में अंग्रेजी के शब्दों के घालमेल को लेकर है। बहुत से लोग इसे एक तरह से हिंदी पर मंडराते संकट के बादलों की तरह देखते हैं।
बहुत से हिंदी अख़बार आजकल धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल कर रेह हैं। नई दिल्ली से निकलने वाले अखडबार नवभारत टाइम्स को ही लें। इन दिनों इस अखबार ने एक नया ट्रेंड शुरू किया है। एक्चुली इस न्यूज़पेपर का न्यू ट्रेंड इंग्लिश में हिंदी को मिलाकर लिकने का है। इस अखबार की भाषा इन दिनों कुछ ऐसी ही हो चली है। अब हिंदी में अंग्रेज़ी को नहीं बल्कि अंग्रेज़ी में हिंदी को मिलाकर लिखा जा रहा है। यह हिंदी भी सिर्फ का, के, की और हैं या नहीं तक ही सीमित होकर रह गई है। यह गनीमत है कि यह नया चलन ख़बरों के शीर्षकों तक ही देखने को मिलता है। इसकी एक बानगी देखिए- मेट्रोज में बढ़ रहा है जियोपैथिक स्ट्रेस से पार पाने का क्रेज, सीपी का नया ट्रैफिक प्लान, LOC पर फायरिंग, जवान शहीद, कॉमनवेल्थ की रेस में अब गेट सेट गो...गेम्स का पहला वेन्यू बनकर तैयार, नर्सरी एडमिशन में कटऑफ का मैथ्स, हाई स्कोर में उलझेंगे पेरंट्स।
इस भाषा को आप कौनसी भाषा कहेंगे? क्या यह हिंदुस्तानी है जिसक राग अक्सर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अलापता है। हिंदुस्तान की 35 फीसदी जनता तो निरक्षर है। फिर जो 65 फीसदी साक्षर है उनमें से शिक्षित कितने लोग हैं। फिर कितने लोग हैं जो अंग्रेजी के शब्दों से परिचित भी हैं। उस पर यह अख़बार राष्ट्रीय अख़बार होने का दंभ भरता है।
ऐसी स्थिति में टारगेट रीडर की दुहाई को तर्क बनाकर पेश किया जाता है। इस अख़बार का तर्क है कि इसका टारगेट रीडर दिल्ली और एनसीआर है। यहां के लोग और ख़ास तौर पर युवा आज ऐसी ही हिंदी बोल रहे हैं। जब वे ऐसी हिंदी बोल रहे हैं तो उन्हें वैसी ही हिंदी पढ़ाने में क्या हर्ज है? दूसरा तर्क जो अब बहुत पुरानी हो चुका है दिया जाता है कि तालाब का ठहरा हुआ पानी सड़ जाया करता है। भाषा तो नदी की तरह प्रवाहमान है।
ऐसा तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि नदी के बहाव में पवित्रता होती है। उसमें किसी तरह की मिलावट नहीं होती। जब नदी में भी रसायन मिल जाते हैं तो हालत युना जैसी हो जाती है। दूसरा, वह बहाव स्वाभाविक होता है। जबकि भाषा में इस बहाव के बहाने उसके साथ बलात्कार किया जा रहा है।
जहां तक युवाओं के ऐसी भाषा का इस्तेमाल करने की बात है तो दिल्लीएनसीआर में 80 फीसदी युवा देश के विभिन्न हिस्सों से आए हुए हैं। इनमें भी गांवों, कस्बों से आए हुए लोग ही ज़यादा हैं। जिस सामाजिक सांस्कृतिक पूंजी के दम पर उन्होंने यहां अपनी जगह बनाई है, उसे भला वे लोग तिलांजलि कैसे दे सकते हैं? सो ऐसे मीडिया समूहों का यह तर्क भी निरस्त हो जाता है।
अगर मान भी लें कि आज का युवा ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहा है, तो क्या इस समाज का प्रहरी होने के नाते मीडिया की कुछ ज़िम्मेदारियां नहीं बनती? फिर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दंभ यह कैसे भरता है? इस चौथे पाये का दायित्व बनता है कि वह ना सिरफ हमारी संस्कृति की रक्षा करे बल्कि उसे समृद्ध भी बनाए। कहने की ज़रूरत नहीं कि भाषा संस्कृति का एक अहम पहलू है।
क्या हिंदी में शब्दों की इतनी कंगाली छा गई है कि इसे अंग्रेजी को बैसाखी बनाकर चलना पड़े? अगर नहीं तब फिर मीडिया के एक हिस्से से ऐसी छवि क्यों बनाई जा रही है? कम से कम लोकतंत्र के इस चौथे पाये को तो स्वार्थों को किनारे कर व्यापक सामाजिक हित के बारे में सोचना चाहिए। लेकिन विडंबना यही है कि कभी सामाजिक सरोकारों से चलने वाला मीडिया आज बाज़ार के सरोकारों से चल रहा है।