Saturday, July 4, 2009

वो बूढ़ी औरत...


पिछले दिनों एक साक्षात्कार के सिलसिले में लोकसभा जाना हुआ। इसकी आरंभ सीमा के पास ही एक बूढ़ी औरत बैठी रो रही थी। मैनें उनसे पूछा क्या हुआ मां जी, मगर कुछ कहने के बजाय उनकी सिसकियां और बढ़ गई। मैंने फिर उनसे कहा कि देखिए मैं आपके बेटे के समान हूं। कुछ बताएं तो शायद मैं आपकी कोई मदद कर सकूं। इतना कहने पर वह मुझे बताने को राज़ी हुई। कहने लगी बेटा! मेरे बच्चे भूख से बिलख रहे हैं...आंखें अंदर धंसे जा रही हैं...पेट कमर से जा लगा है...हाथ-पैर कीर्तन कर रहे हैं...वो भूख से बिलख रहे हैं...और मुझसे उनका बिलखना देखा नहीं जाता। सत्तू पिलाकर सुलाने की कहानी तो अब पुरानी हो गई, यहां तो वह भी नसीब नहीं होता। खाने को घर में आटा दाल कुछ नहीं है। बेटे खेती करते हैं उससे जो फसल आती है उसे बेचकर भी इतना पैसा नहीं मिल पाता कि साल भर का काम चल सके। पैदावार होती है तो मंडी में पहुंचने से पहले ही साहूकार आ धमकता है सूद समेत अपना पैसा वापस मांगने। फिर खून पसीना बहाकर, दौड़-धूप करके, भरी सर्दी में भी रात भऱ खेतों में जागकर पैदा की हुई फसल भी हमारी कहां रह जाती है।
मैंने पूछा कि माता जी जब सरकार ने ऋण प्रक्रिया इतनी सरल कर दी है तब भी आप साहूकार से कर्ज लेती ही क्यों हैं? वृद्धा कहने लगी कि हां सुनने में तो आया था कि सरकार किसानों को बहुत सस्ते कर्ज दे रही है और जिनसे कर्ज चुकाया नहीं गया उनके कर्ज माफ भी किये हैं। हां बेटा, कर्ज लेना आसान हुआ है पर कागजों से कानों तक ही इसकी आसानी है। जब कर्ज लेने जाओ तब पता लगती है इसकी ‘सरलता’। आज फॉर्म नहीं है...अगले सप्ताह आइएगा...फिर जैसे-तैसे फॉर्म मिलता है तो पता लगता है कि अधिकारी महोदय 15 दिन की छुट्टी पर हैं...जब आएंगे तो उसके बाद ही बात कुछ आगे बढ़ेगी। तब तक खाद बीज देने का मौसम निकल जाता है। फिर चाहे वो ऋण मिले या ना मिले उसका कोई मतलब नहीं रह जाता। इससे तो ठीक हमारा साहूकार है जिससे कर्जा मांगो तो समय पर मिल तो जाता है। फिर हम चाहे जैसे उस ऋण को उतारते रहें।
मैं मन ही मन सोचने लगा कि बड़ी त्रासद स्थिति है आज निजी से लेकर सरकारी बैंक तक सभी घरों में घुस घुस कर घरों के लिए ज़बरदस्ती लोन देने में मसरूफ हैं और जिसे ज़रूरत है उसे ही लोन नहीं मिलता। वृद्धा ने आंखों से आंसू पोंछते हुए कहा कि आजकल मार्केट के वो बड़ी बड़ी चैन सिस्टम वाले लोग भी सब्जियों पर अपना हक जमाने आ जाते हैं। पहले कम से कम जो उगाते थे उसे बेचकर पेट तो भर लिया करते थे। मगर अब तो अगर बाजा़र में खरीदने जाओ तो दाम तिगुने-चौगने सुनते ही पैरों तले ज़मीन खिसक जाती है। सब्जियां तो धीरे धीरे हर आम आदमी की थाली से बाहर होती जा रही हैं। सरकार बार बार कह रही है कि मंहगाई दर कम हो रही है फिर ये समझ नहीं आता कि महंगाई क्यों हनुमान की पूंछ की तरह लगातार बढ़ती जा रही है। मैंने उनसे पूछा कि तो फिर यहां बैठकर आप इस तरह से विलाप क्यों कर रही हैं? वे लगी कहने कि चुनाव से पहले एक हाथ हमारा हाथ थामने आया था और 3 रुपये किलो में 25 किलो अनाज हर महीने देने का वादा किया था। मगर आज भी मेरे बच्चे सिर्फ पानी पीकर ही सोने को मजबूर हैं। अब वो हाथ कहीं दिखाई नहीं देता है। सोचते हैं कि ना ही तो कोई हाथ सिर पर है और ना ही हमारी ज़िंदगी में कमल ही खिलता है। यहां आकर इसलिए बैठी थी कि उनमें से कुछ लोग दिखाई दें तो उनसे कहूंगी कहां हैं उनके वादे। वोट मांगते वक्त तो बड़ी बड़ी हांकते थे और अब मुड़कर देखते भी नहीं। मगर कोई फायदा नहीं हुआ, वे लोग अब मुझे पहचानने से ही इंकार कर रहे हैं।
संवेदनाएं जवाब देने लगी थी और मैं उनसे पूछ बैठा कि आप कौन हैं, आपका नाम क्या है। उनकी सिसकियां फिर तेज़ होने लगी। लगा जैसे उनके किसी पुराने ज़ख्म को छेड़ दिया हो। वे कहने लगी कि तुम भी मुझे नहीं पहचान रहे हो...मैं वो हूं जिसकी अज़ादी के बाद से ही अनदेखी होती आई है। मैं तो भारत के हर छोटे-बड़े गांव, कस्बे, शहर में रहती हूं। अब मेरे बुढ़ापे का सहारा भी कोई नहीं है। मेरा नाम ग़रीबी है और मेरे जो करोड़ों बच्चे भूख से बिलख रहे हैं वो ग़रीब हैं। इतना कहकर मानो उनके ढांढस का बांध टूट गया था और उनकी आंखें छलक आई...

10 comments:

  1. bhai waah..khoob paribhashit kiya hai tumne garibi ko...maan gaye mitr...

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  2. अच्छा लेखन है आपका, अच्छा लिखा है

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  3. Haan..yahee sach hai..!Aap in baatonko logon ke saamne laake bada achha kaam kar rahe hain!

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  4. अच्छे तरीके से बयाँ किया है

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  5. अच्छा है अंदाज़े-बयाँ।
    सुस्वागतम्।

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  6. Bahut sundar rachana..really its awesome...

    Regards..
    DevSangeet

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  7. हिंदी भाषा को इन्टरनेट जगत मे लोकप्रिय करने के लिए आपका साधुवाद |

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