Thursday, October 8, 2009

एक दुनिया ये भी



दुनिया से परे भी एक दुनिया है ऐसी
बहुत सुनी-बहुत देखी, फिर भी है अनदेखी सी
सोचो तो है आम ये दुनिया, लेकिन है कुछ खास वो दुनिया
सोचो तो बेगानी सी और सोचो तो है अपनी सी
बचपन बढता इसके सहारे, फिर इसमें जवानी ढलती है
बुढ़ापे में भी साथ निभाए, कुदरत की ये देन है ऐसी
छोड़ दे चाहे ज़माना सारा, पर ये साथ निभाती है
बचपन से हैं खेले इसमें, फिर क्यों लगती बोझिल सी
अंधकार को दूर करती, इसकी दिव्य ज्योति है
नाउम्मीदों में उम्मीद का दामन, ये जीवन की डोर सी
जांत-पांत का भेद ना देखे, धर्म-वर्ण सब इससे दूर
ऊंच-नीच की दीवार हटाती, जीवन मंगल करती सी
ये दुनिया है किताबों की, ये दुनिया है किताबों की
इस दुनिया को समाए खुद में, ये दुनिया है निराली सी

2 comments:

  1. कम शब्दों में बहुत खूब। किताबों की दुनिया। आजकल मुझे भी भाती है।

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  2. Kitaabe....khub sath nibhati hai.....
    shabd kam ha...bhav zyada ha....
    bohot sundar...

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