Thursday, January 14, 2010

बाज़ारू होता मीडिया और बदलती भाषा

हर समाज की अपनी एक भाषा होती है। उस समाज का मीडिया या जनसंचार के माध्यम लोगों तक सूचनाएं पहुंचाने के लिए उसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं। हर समाज उत्तरोत्तर विकास करता है। समाज के विकास के साथ साथ उसकी भाषा का भी विकास होता रहा है। इस भाषाई विकास को लेकर कई विमर्श हैं। आजकल मीडिया में इस्तेमाल की जा रही हिंदी को लेकर भी मीडिया में भी एक विमर्श छिड़ा हुआ है।
मीडिया का काम है जनता तक सूचनाओं का संचार करना। संचार के लिए किसी भाषा का होना ज़रूरी है। लेकिन सवाल यह उठता है कि यह भाषा कैसी हो। ‘आम बोलचाल की भाषा ही हमारी भाषा होनी चाहिए’ यह मीडिया का सबसे प्रिय जुमला है। इस आम बोलचाल की भाषा के मानक हर मीडिया समूह के लिए अलग अलग हो गए हैं। बहुत हद तक संभव है कि उनका आमो-ख़ास का नज़रिया भी बदल जाता हो।
इस बदलते परिवेश में हिंदी अख़बारों की बदलती हिंदी पर मीडिया के ही एक हिस्से से चिंताएं जताई जा रही हैं। चिंता ख़स तौर पर हिंदी में अंग्रेजी के शब्दों के घालमेल को लेकर है। बहुत से लोग इसे एक तरह से हिंदी पर मंडराते संकट के बादलों की तरह देखते हैं।
बहुत से हिंदी अख़बार आजकल धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल कर रेह हैं। नई दिल्ली से निकलने वाले अखडबार नवभारत टाइम्स को ही लें। इन दिनों इस अखबार ने एक नया ट्रेंड शुरू किया है। एक्चुली इस न्यूज़पेपर का न्यू ट्रेंड इंग्लिश में हिंदी को मिलाकर लिकने का है। इस अखबार की भाषा इन दिनों कुछ ऐसी ही हो चली है। अब हिंदी में अंग्रेज़ी को नहीं बल्कि अंग्रेज़ी में हिंदी को मिलाकर लिखा जा रहा है। यह हिंदी भी सिर्फ का, के, की और हैं या नहीं तक ही सीमित होकर रह गई है। यह गनीमत है कि यह नया चलन ख़बरों के शीर्षकों तक ही देखने को मिलता है। इसकी एक बानगी देखिए- मेट्रोज में बढ़ रहा है जियोपैथिक स्ट्रेस से पार पाने का क्रेज, सीपी का नया ट्रैफिक प्लान, LOC पर फायरिंग, जवान शहीद, कॉमनवेल्थ की रेस में अब गेट सेट गो...गेम्स का पहला वेन्यू बनकर तैयार, नर्सरी एडमिशन में कटऑफ का मैथ्स, हाई स्कोर में उलझेंगे पेरंट्स।
इस भाषा को आप कौनसी भाषा कहेंगे? क्या यह हिंदुस्तानी है जिसक राग अक्सर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अलापता है। हिंदुस्तान की 35 फीसदी जनता तो निरक्षर है। फिर जो 65 फीसदी साक्षर है उनमें से शिक्षित कितने लोग हैं। फिर कितने लोग हैं जो अंग्रेजी के शब्दों से परिचित भी हैं। उस पर यह अख़बार राष्ट्रीय अख़बार होने का दंभ भरता है।
ऐसी स्थिति में टारगेट रीडर की दुहाई को तर्क बनाकर पेश किया जाता है। इस अख़बार का तर्क है कि इसका टारगेट रीडर दिल्ली और एनसीआर है। यहां के लोग और ख़ास तौर पर युवा आज ऐसी ही हिंदी बोल रहे हैं। जब वे ऐसी हिंदी बोल रहे हैं तो उन्हें वैसी ही हिंदी पढ़ाने में क्या हर्ज है? दूसरा तर्क जो अब बहुत पुरानी हो चुका है दिया जाता है कि तालाब का ठहरा हुआ पानी सड़ जाया करता है। भाषा तो नदी की तरह प्रवाहमान है।
ऐसा तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि नदी के बहाव में पवित्रता होती है। उसमें किसी तरह की मिलावट नहीं होती। जब नदी में भी रसायन मिल जाते हैं तो हालत युना जैसी हो जाती है। दूसरा, वह बहाव स्वाभाविक होता है। जबकि भाषा में इस बहाव के बहाने उसके साथ बलात्कार किया जा रहा है।
जहां तक युवाओं के ऐसी भाषा का इस्तेमाल करने की बात है तो दिल्लीएनसीआर में 80 फीसदी युवा देश के विभिन्न हिस्सों से आए हुए हैं। इनमें भी गांवों, कस्बों से आए हुए लोग ही ज़यादा हैं। जिस सामाजिक सांस्कृतिक पूंजी के दम पर उन्होंने यहां अपनी जगह बनाई है, उसे भला वे लोग तिलांजलि कैसे दे सकते हैं? सो ऐसे मीडिया समूहों का यह तर्क भी निरस्त हो जाता है।
अगर मान भी लें कि आज का युवा ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहा है, तो क्या इस समाज का प्रहरी होने के नाते मीडिया की कुछ ज़िम्मेदारियां नहीं बनती? फिर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दंभ यह कैसे भरता है? इस चौथे पाये का दायित्व बनता है कि वह ना सिरफ हमारी संस्कृति की रक्षा करे बल्कि उसे समृद्ध भी बनाए। कहने की ज़रूरत नहीं कि भाषा संस्कृति का एक अहम पहलू है।
क्या हिंदी में शब्दों की इतनी कंगाली छा गई है कि इसे अंग्रेजी को बैसाखी बनाकर चलना पड़े? अगर नहीं तब फिर मीडिया के एक हिस्से से ऐसी छवि क्यों बनाई जा रही है? कम से कम लोकतंत्र के इस चौथे पाये को तो स्वार्थों को किनारे कर व्यापक सामाजिक हित के बारे में सोचना चाहिए। लेकिन विडंबना यही है कि कभी सामाजिक सरोकारों से चलने वाला मीडिया आज बाज़ार के सरोकारों से चल रहा है।

2 comments:

  1. aapke vichaar achhe he. magar jab baazaar he to jesa maal bikataa he..vesaa hi rakhaa jaataa he.., baazaru he to jo chahe vo le jaaye jesi sthiti he...yaani sach yah he ki peiso ka bolbala he ji..sabkuch usike bal se chaltaa he.

    ReplyDelete
  2. bahut achchi koshish .... dost aise hi aaina dikhate raho shayad kisi din chehre ki dhool saaf ho jaye

    ReplyDelete