Friday, November 27, 2009
अख़बारों को क्या हो गया है...
घटना एक ही थी लेकिन उसे देखने का तरीका अलग अलग। कैसे कोई एक रिपोर्टर अपने ख़ास एंगल की वजह से आगे बढ़ता जाता है। लेकिन गन्ना किसानों के इस मामले में मुझे कहीं से अखबारों का कोई अलग एंगल नज़र नहीं आया। नज़र आया तो सिर्फ ये कि उन्होंने किसी दूसरे चशमे से उस घटना को देखा।
संयोगवश उस रोज़ मैं भी अपने क्लासरूम में ना होकर सड़क पर ही था लेकिन मुझे नवभारत, हिंदुस्तान, नई दुनिया, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंन्दुस्तान टाइम्स जैसी चीज़ें तो महसूस नहीं हुई। शायद इसलिए कि जिस चश्मे से ये सारे बड़े और राष्ट्रीय कहलाने वाले समूह इस घटना को देख रहे थे मेरे पास वह चश्मा नहीं था और आज भी नहीं है।
कुछ अखबारों की लीड की तरफ ध्यान चाहूंगा
KISAN JAM – TIMES OF INDIA
BITTER HARVEST, THEY PROTESTED, DRANK, VANDALISED AND PEED – HINDUSTAN TIMES
हिंसा की खेती – नवभारत टाइम्स
तर्क दिया जाता है कि इन अखबारों के टारगेट ऑडियंस को ध्यान में रखकर ही इन्होंने ख़बर को इस तरह पेश किया। जिस टारगेट ऑडियंस की बात की जाती वह लक्षित जनसमूह खुद उस मीडिया समूह की बनाई हुई एक परिधि होती है जिसके इर्द गिर्द वह घूमता रहता है। उसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। एक कमरे में बैठकर करोड़ों पाठकों की रूचि को परिभाषित कर दिया जाता है।
इस पूरे घटनाक्रम में सवाल यह उठता है कि किसी भी घटना के चरित्र को बदलने का हक इन अखबारों को किसने दिया। यह पहले भी कई अध्ययनों में साबित हो चुका है कि मीडिया छवि को बनाने में अहम भूमिका अदा करता है। ओबामा को किसने पॉपुलर बनाया, राहुल गांधी को किस तरह से प्रोजेक्ट किया जा रहा है, कलावती की चर्चाओं का बाज़ार किसने गर्म किया। बहुतेरे उदाहरण हैं जिनमें मीडिया की इस भूमिका को साफ देखा जा सकता है।
यहां जिस तरह से किसानों की तस्वीर पेश की गई उसने पूरी तरह से किसानों की छवि को दागदार बनाया। नई दुनिया को ज़रा भी शर्म नहीं आई किसानों को उत्पाती कहते हुए।
अगर यह तर्क दिया जाए कि इन अखबारों ने एक अलग एंगल लिया तो फिर इन अखबारों के संपादकों को एक बार पत्रकारिता के स्कूलों में जाकर पत्रकारिता सीखनी चाहिए। क्योंकि जिस खबर को इन्होंने ‘बनाया’ वह दरअसल कोई एंगल नहीं था। बनाया शब्द यहां इसीलिए इस्तेमाल किया गया कि इस खबर को बनाया गया, असल में वह खबर थी नहीं। एंगल में खबर के ही किसी महत्त्वपूर्ण हिस्से को लिया जाता है। अब महत्त्वपूर्ण को परिभाषित करना भी ज़रूरी हो जाता है क्योंकि अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग बातें महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं।
पत्रकारिता के सिद्धांतों के आधार पर महत्त्वपूर्ण वह है जो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को प्रभावित करे। जो नया हो और लोकहित में हो। कम से कम जाम लगना तो महत्त्वपूर्ण नहीं था। दिल्ली में जाम लगना आम बात है। कितने ही रूट ऐसे हैं जहां सुबह शाम जाम का नज़ारा आम होता है। उसमें नया क्या था।
अब समझ यह नहीं आता कि इसे पत्रकारिता का बदलता हुआ स्वरूप कहें या पत्रकारों का बदलता नज़रिया...
Wednesday, November 11, 2009
नहीं रहे कागद मसि के मसीहा !

अपनी कलम का जादू बिखेरने की तैयारी में लगे प्रभाष जोशी की आंखे जैसे सचिन के बल्ले से निकले एक-एक शॉट को जेहन में उतार लेना चाहती थी। हैदराबाद में सचिन जब अपने पुराने अंदाज़ में खेलते नज़र आ रहे थे तो पत्रकारिता के उस शीर्ष के हर पाठक को शायद सुबह का इंतज़ार था। क्योंकि जब जब तेंदुलकर का बल्ला चला है तब तब प्रभाष जोशी की कलम चली है।
पांच तारीख की रात जब सचिन चौव्वे पे चौव्वे लगा रहे थे तो अनायास ही उनका ख़याल आ गया। साथ मैच देखते मित्र से अपने मन की बात को साझा करते हुए कहा कि कल के जनसत्ता में प्रभाष जी की जादुई पारी देखने को मिलेगी। लेकिन वक़्त को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। हमें क्या पता था कि दादाजी के कागद मसि तो दूर अब हम कभी दादाजी को भी नहीं देख सकेंगे।
पत्रकारिता के कुबेर का इस दुनिया से जाना एक युग का अंत है। उन्होंने पांच तारीख की रात को अपनी अंतिम सांसें ली। अगली सुबह उनके शव को दर्शनार्थ गांधी प्रतिष्ठान लाया गया। ऐसा लग रहा था जैसे यहां के पेड़-पौधे और दीवारें भी नम आंखों से इस युग पुरूष को श्रद्धांजलि दे रही हों। उनके अंतिम दर्शन के लिए वे सभी पत्रकार वहां मौजूद थे जो उनसे पत्रकारिता सीखते हुए आगे बढ़े।
इंडियन एक्सप्रैस के संपादक शेखर गुप्ता की आंखें यह कहते हुए नम हो उठी कि वह उनके पिता तुल्य थे। उन्होंने कहा उनका जाना पत्रकारिता के लिए एक बड़ी क्षति है। यह पूछने पर कि उनके बाद कौन ऐसा दिखाई देता है जो उस मशाल का हरकारा बन सके जो उन्होंने जलाई थी, शेखर ने कहा कि अभी ऐसा कोई दिखाई नहीं देता।
दादाजी ने अपनी पत्रकारिता के ज़रिए दिल्ली में मालवा की संस्कृति को स्थापित किया। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता में एक नया मुहावरा गढ़ा और उसे एक नए मुकाम पर पहुंचाया। वह अकेले ऐसे पत्रकार थे जो आज की पत्रकारिता पर लगातार सवाल उठाते रहे थे और आने वाली पीढ़ी के पत्रकारों में एक नई उर्जा का संचार करते थे।
दादाजी ज़िंदगी की पिच पर कलम की बल्लेबाजी करते हुए इस दुनिया को अलविदा कह गए। 72 की उम्र में भी वह खुद को सक्रिय रखते थे। कागद मसि के उस मसीहा के जाने के बाद कौन है जो कागद कारे करेगा और पत्रकारिता के मूल्यों की बात करेगा।
Wednesday, November 4, 2009
प्यार में ऐसा होता है...

रग़ रग़ में प्यार भर जाता है
और जीवन संवर जाता है
प्यार करो तो जानो यारों
प्यार में ऐसा होता है...
प्यार मिले जब प्यार से अपने
प्यार में महके तन मन सारा
देखो अपने दिल को देखो
दिल खोया खोया रहता है
प्यार करो तो जानो यारों
प्यार में ऐसा होता है...
फुलवारी लगे ये दुनिया सारी
ख़ुशियों से हो अपनी यारी
हर सुबह लगे नई सी
हर पल नया नया सा लगता है
प्यार करो यो जानो यारों
प्यार में ऐसा होता है...
प्यार में मानो जिसको अपना
जब वो बेगाना-सा हो जाता है
आंख से दरिया बहता है और
दिल रह-रह कर रोता है
प्यार करो तो जानो यारों
प्यार में ऐसा होता है...
नहीं कुछ अच्छा लगता मन को
हर अपना भी बेगाना लगता है
प्यार मिले ना प्यार से अपने
तब फिर ऐसा होता है
प्यार करो तो जानो यारों
प्यार में ऐसा होता है...
नींद कहां फिर आती है
इस दिल का चैन खो जाता है
सदियों से लंबी लगती रातें
पल-पल सांसों पर भारी हो जाता है
प्यार कभी ना करना यारों
प्यार में ऐसा होता है...
प्यार में ऐसा होता है...
Thursday, October 8, 2009
एक दुनिया ये भी

दुनिया से परे भी एक दुनिया है ऐसी
बहुत सुनी-बहुत देखी, फिर भी है अनदेखी सी
सोचो तो है आम ये दुनिया, लेकिन है कुछ खास वो दुनिया
सोचो तो बेगानी सी और सोचो तो है अपनी सी
बचपन बढता इसके सहारे, फिर इसमें जवानी ढलती है
बुढ़ापे में भी साथ निभाए, कुदरत की ये देन है ऐसी
छोड़ दे चाहे ज़माना सारा, पर ये साथ निभाती है
बचपन से हैं खेले इसमें, फिर क्यों लगती बोझिल सी
अंधकार को दूर करती, इसकी दिव्य ज्योति है
नाउम्मीदों में उम्मीद का दामन, ये जीवन की डोर सी
जांत-पांत का भेद ना देखे, धर्म-वर्ण सब इससे दूर
ऊंच-नीच की दीवार हटाती, जीवन मंगल करती सी
ये दुनिया है किताबों की, ये दुनिया है किताबों की
इस दुनिया को समाए खुद में, ये दुनिया है निराली सी
Friday, September 25, 2009
क्या आपको हिंदी बोलने पर गर्व होता है?

ऐसी ही एक गोष्ठी में श्रोताओं की कतार में बैठकर कुछ बुद्धिजीवियों को सुनने का सौभाग्य हमें भी मिला। हिंदी का भविष्य बनाम संगोष्ठी का विषय था भविष्य की हिंदी। इस संगोष्ठी में अंग्रेज़ी से विधिवत इश्क करने वाले और हिंदी के खलनायक कहे जाने वाले एक बुद्धिजीवी को सुनकर वाकई बहुत अच्छा लगा। उन्होंने चिंता जताई कि 2050 तक हिंदी तकरीबन ख़त्म हो जाएगी। कारण आज ग़रीब से ग़रीब आदमी भी चाहता है कि उसका बच्चा अंग्रेज़ी पढ़े, अंग्रेज़ी बोले, अंग्रेज़ी खाए, अंग्रेज़ी पीए और अंग्रेज़ी ही जीए। अब जब सारे काम अंग्रेज़ी में ही होने लगेंगे तो भला हिंदी कहां बचेगी। उनका मानना था कि तब तक ज़िंदगी के तमाम गंभीर काम मसलन पढ़ना और लिखना अंग्रेज़ी में होने लगेंगे। ठीक ही है हमारे कुछ अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ने वाले मित्रगण हैं जो अंग्रेजी में ही सोचते हैं। उनकी समस्या ये है कि उनका सॉफ्टवेयर हिंदी को एक्सेप्ट ही नहीं करता है। अब समझा जा सकता है कि जब ख़याल ही अंग्रेज़ी हो जाएंगे तो आगे क्या होगा।
जहां भाषा की बात होती है वहां उसके बहती नदी की तरह होने की बात ज़रूर की जाती है। साथ ही भाषा को संस्कारों का वाहक भी माना जाता है। सो ये सारी बातें यहां भी हुई। ठीक भी है ठहरा हुआ पानी सड़ जाता है। भाषा की जीवंतता भी उसके बहते रहने में ही है। इस बहाव में अगर कुछ शब्द बहकर भाषा से निकल जाते हैं तो उस पर विलाप नहीं करना चाहिए। उनकी जगह अंग्रेज़ी के कुछ शब्द अपना अभिन्न स्थान बना लेते हैं तो अच्छी ही बात है। वैसे भी सहिष्णुता तो हमारी सांस्कृतिक विशेषता है। इस तरह के बदलाव से हम आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन इस आगे बढ़ने की प्रक्रिया में हम ये नहीं देखते कि हम उत्कृष्टता की ओर बढ़ रहे हैं या निकृष्टता की ओर। इसे देखकर इसका अंतर करना भी ज़रूरी है।
अब कोई कह सकता है कि जब रूम बोलने से भी कमरे की तस्वीर उभरती है, मोम या ममा बोलने से मां का ख़याल आ जाता है तो फिर आपको ऐसे शब्दों को हिंदी में मिला लेने से आखिर क्या ऐतराज़ है? तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं है। लेकिन जब ये भाषाई आदान प्रदान प्रभुता के भाव से वर्णसंकरता में तब्दील होने लगता है तो हमें ऐतराज़ होने लगता है। यानि हिंदी बोलें तो हमें हीन समझा जाता है। जब ये परिवर्तन हीनता के इसी भाव से ग्रसित होकर होने लगता है तो यह ख़ुद की पहचान मिटाने जैसा है।
चलते चलते एक बात और। हो सकता है कि ये बात आपको कड़वी लगे लेकिन कभी कभी नीम और करेला भी फायदेमंद होते हैं। क्या आप अपनी मां को मोरंजन का साधन बनते देख सकते हैं? लेकिन भविष्य की तस्वीर तो कुछ यही कहती है कि हिंदी केवल सिनेमा के पर्दे पर, टीवी की स्क्रीन पर ही रह जाएगी। अब मनोरंजन आज पूरी तरह से बज़ार का हिस्सा हो चुका है। ख़ुदा ना खास्ता अगर ऐसा होता है तो क्या हिंदी बाज़ारू नहीं हो जाएगी? तो क्या आप हिंदी को बाज़ारू बनते देख सकते हैं? या फिर हिंदी को अपना गर्व समझते हैं? अगर आपको कोई आपका अपना घर छोड़कर किराए के मकान में जाकर रहने को कहे तो आपको कैसा लगेगा? क्या आप उसे वैसे ही अपना सकते हैं? क्या वहां भी वैसा ही महसूस कर सकते हैं जैसा अपने घर में करते हैं? क्या आप वहां जी पाएंगे? तो फिर आप अपनी भाषा को छोड़कर किसी विदेशी भाषा को आप कैसे अपना सकते हैं? कैसे उसे अंगीकार कर सकते हैं? अगर आपका जवाब ना है तो ज़रा सोचिए क्या हिंदी को छोड़कर जी पाएंगे...हिंदी हमारी मातृ भाषा है जो विकास हमारा हिंदी में हो सकता है उसका रत्ती भर भी अंग्रेज़ी में नहीं हो सकता। हां अंग्रेज़ी समय की ज़रूरत है लेकिन इसके लिए हम हिंदी के साथ बलात्कार क्यों कर रहे हैं?
Wednesday, September 16, 2009
पुस्तक मेला या बाज़ार

अंदर जाने पर नज़ारा कुछ और ही था। पुस्तक मेले में स्टेशनरी मेला देखकर आंखें चौंधिया गई। एक तो हज़ारों की क़ीमत वाली कलम, पुराने ज़माने के दुर्लभ और बहुमूल्य संदेश पत्र और वो भई ख़ूबसूरत युवतियों के हाथों बिकते देख अपन तो गच्चा खा गए। टहलते टहलते हिंदी प्रकाशनों पर पहुंचे। घूमते हुए सोच रहा था कि इस बार लोग न जाने क्यों दिखाई नहीं पड़ रहे। कुछ एक प्रकाशकों से पूछने पर वो लगे कहने कि आग लगे इन आयोजकों को जो इस बार प्रवेश शुल्क भी दोगुना कर दिया। फिर मौसम का मिजाज़ भी कुछ ऐसा ही है लेकिन उन्होंने उम्मीद जताई कि ख़त्म होते होते लोगों की तादाद बढ़ जाएगी। हम भी दो चार किताबें खरीद के निकल लिए।
सौभाग्य से मेले के आखिरी दिन रविवार था और हमें एक बार फिर वहां जाने का मौका मिल गया। इस बार सब अप्रत्याशित था। खिड़की तकरीबन खाली ही थी। टिकट लेते हुए हमने अपने छोटे से संस्थान का परिचय देते हुए पूछ लिया कि इस बार लगभग कितने की टिकट बिक गई होंगी। आजकल टीवी ने लोगों को इतना जागरूक बना दिया है कि हर कोई पूछ बैठता है कैमरा है क्या? कैमरा हो तो बोलें। अब हम ठहरे कलमघसीट सो अपना सा मुंह लेकर चल दिए अंदर।
अंदर का नज़ारा आज उस दिन से ठीक उल्टा था। स्टेशनरी की चकाचौंध कायम थी बल्कि उसमें कुछ इजाफ़ा ही हुआ था। अंग्रेज़ी वाले लगाकर बैठे थे 25रूपये में हर किताब। छोटी सी जगह... तीन मेजों पर बिखरी किताबें...ठसासठस भरा स्टॉल...पता नहीं वहां 25 रूपये में कौनसा सुंदर साहित्य मिलता है जो अपने यहां हिंदी में दुर्लभ है। आगे एक ‘योग की दुकान’ थी जिसमें एक फोटो दिखाकर लोगों को जाने कैसे चंद मिनटों में आत्मिक शांति दिला रहे थे। अपनी समझ से से तो परे ही है।
बहरहाल हम फिर अपने हिंदी प्रकाशकों के पास पहुंचे। बीच में एक बड़ा बाज़ार नज़रों के सामने से गुज़रा। यहां बच्चों के लिए बहुत कुछ था। एक हॉल तो तकरीबन पूरा ही बच्चों की पठनीय सामग्री से भरा पड़ा था और सारी का सारी अंग्रेज़ी में। इसमें दूध पीते बच्चों की भी सृजनात्मकता बढ़ाने वाली चीज़ों से स्टॉल पटे पड़े थे। अब समझ यह नहीं आता कि बच्चों को 5 सब्ज़ियों और पक्षियों के नाम सिखाने के लिए लोग 250रू से भी ज़्यादा के बंद डब्बे क्यों खरीदते हैं। बहुत मुमकिन है कि उनके घरों में सब्ज़ियां आती ही ना हों। मगर फिर भी भीड़ खूब थी।
इधर अपने हिंदी के प्रकाशक बिल फाड़ने में थोड़े व्यस्त नज़र आए। लेकिन शिकायत उनकी भी थी कि बहुत कम नौजवान साहित्य खरीद रहे हैं। चौंकाने वाली बात तो यह थी कि नाम डायमंड हिंदी बुक्स के नाम में ही हिंदी थी। स्टॉल तो पूरा अंग्रेज़ीदां ही लग रहा था। अब यह त्रासदी जाने हिंदी की है या हिंदी प्रकाशकों की। इस पर अपने अपने मत हो सकते हैं।
सबसे अहम बात जो इस मेले की थीम के बारे में है। इस बार की थीम थी ‘उत्तर पूर्व का साहित्य’। यह और बात है कि इसको एक हॉल (हॉल नं.8) में केवल एक कोना ही नसीब हुआ। बाहर निकल कर एक ही बात दिमाग में चल रही थी कि पुस्तक मेला है कि बाज़ार ...
Monday, September 14, 2009
मेरे हमदम

लहरों को है मोहब्बत
साहिल से बहुत
मगर रह जाता है साहिल पर
उनके आंसुओं का नीर
डूबते सूरज की भी
जाने क्या है आरज़ू
आभास देता है समंदर से मिलन का
मगर अगले दिन
फिर वही जुस्तज़ू
उषा और निशा को भी है
तड़प बस मिलन की
एक आती भी है तो साथ लाती है अपने
घड़ी वही बिछुड़न की...
चार हैं दिशाएं जो तकती हैं एक दूजे को
हम ना मिल पाएं चाहे, नज़रें मिलती हैं
कह जाती हैं खामोश निगाहें
बहुत कुछ एक दूजे को...
दो कदम हैं जो साथ-साथ हैं पड़ते
हमकदम होकर भी हम,
हमदम कभी हो नहीं सकते...
Wednesday, September 2, 2009
यूपीए के सौ दिन

यूं तो सरकारें और हमारे मंत्री लोग संकल्प वगैरह करते ही रहते हैं। संकल्प पूरे होना ना होना तो नियति की बात है। यहां यूपीए के सौ दिनों के संकल्पों में से कुछ एक का ज़िक्र करना बेमानी नहीं होगा। यूपीए सरकार ने आंतरिक सुरक्षा को लेकर किसी भी तरह की कोताही ना बरतने और साप्रदायिक सद्भाव को कायम रखने की प्रतिबद्धता जताई। साथ ही आर्थिक विकास दर को बढ़ाना तो खैर शुरू से ही कांग्रेस का एजेंडा रहा है। इस बार इसमें खास बात यह थी कि सरकार कृषि के क्षेत्र में वृद्धि देखना चाहती थी। मगर पहले भी मैंने इस बात का ज़िक्र किया था कि इन संकल्पों का पूरा होना ना होना तो विधाता के हाथ में है। अब इस बार विधि का विधान ही कुछ ऐसा हुआ कि मुल्क के 11 राज्यों के 278 ज़िलों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया गया और यह सिलसिला अब भी थमा नहीं है। अब बेचारी सरकार इसमें क्या करे। उसने तो संकल्प जताया था लेकिन इंद्र देवता उसके संकल्प से खुश नहीं हुए। सच कहें! हमें तो सरकार की बेचारगी पर बड़ा ही तरस आता है।
तरस तो इस देश का गरीब किसान रहा है जो हर रोज़ एक नई उम्मीद के साथ आसमान की ओर ताकता है...बहरहाल हम बात कर रहे थे सौ सूत्री कार्यक्रम की। इसमें रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य को बढावा देने सहित ग्रामीण ढांचे व शहरों के नवीकरण के मौजूदा कार्यक्रमों को और मज़बूत करने, कौशल विकास और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात को शामिल किया गया था। इसके अलावा समाज के कमज़ोर वर्ग और अल्संख्यकों, वरिष्ठ नागरिकों के कलयाण, वित्तीय प्रबंधन, ऊर्जा सुरक्षा, राजकाज में सुधार संबंधी बातों के साथ पंचायतों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण और महिला आरक्षण विधेयक को पास करवाना यूपीए के सौ सूत्री एजेंडे में प्रमुख थे।
हालांकि इस दौरान सरकार ने कुछ एक काम कर डाले मसलन पंचायतों में महिलाओं को पचास फीसदी आरक्षण, विदेश व्यापार नीति को और अधिक उदार बनाना, 6-14 साल के बच्चों को मुफ्त शिक्षा का अधिकार,
लेकिन सरकार मंहगाई पर लगाम लगाने में नाकामयाब रही, स्वाइन फ्लू के साथ इसका ऐसा फ्लो हुआ कि पिछले दिनों यह राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन पर फोकस नहीं कर पाई। बजट सत्र में भूमि अधिग्रहण विधेयक भी उसके अपने ही घटक दल तृणमूल कांग्रेस की आपत्ति के चलते पास नहीं हो पाया। बहुप्रतीक्षित महिला आरक्षण विधेयक एक बार फिर राजनीति की भेंट चढ़ गया। विदेश नीति के मोर्चे पर शर्म अल शेख के साझा बयान पर भी हमारे प्रधानमंत्री ने कोई वाहवाही नहीं बटोरी। उधर एसएम कृष्णा के पदभार संभालते ही ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले होने लगे।
हां भ्रष्टाचार जैसे मसलों पर प्रधानमंत्री की स्वीकारोक्ति और सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों को “बड़ी मछलियों” को पकड़ने की सलाह देना सकारात्मक पहल है। लेकिन इसमें भी माननीय प्रधानमंत्री भूल गए कि सीबीआई खुद उनके नियंत्रण में होने और बूटा सिंह भी उनके दायरे में होने के बावजूद आज तक बूटा सिंह को जांच के दायरे में नहीं लाया जा सका है। यानि कोरी बातों से कुछ नहीं होने वाला...परिवर्तन के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की ज़रुरत है जो अभी किसी भी राजनीतिक दल में दिखाई नहीं देती।
Friday, August 28, 2009
कहने को मैं जिए जा रहा हूं

कहने को मैं जिए जा रहा हूं
हर घड़ी आंसूं पिए जा रहा हूं
नहीं हर तरफ सन्नाटा मेरे
फिर भी ख़ामोशी से कहे जा रहा हूं
खुद ही जो कहते थे वो मेरी अनकही बातें
तलाश में उनकी मैं पागल हुए जा रहा हूं
हैं तैर कर चले गए वो दूर कहीं शायद
मैं दरिया में मोहब्बत के डूबे जा रहा हूं
अब कहां वो जागती रातें, कहां भला वो मीठी बातें
यादें हैं बीते लम्हों की, उन्हीं के सहारे जिए जा रहा हूं
ये जीना भी कोई जीना है, कहने को मैं जिए जा रहा हूं
आंखों ने भी छोड़ दिया साथ अब तो, हर घड़ी आंसू पिए जा रहा हूं...
Thursday, August 13, 2009
पल पल में मेरी मौतें बहुत हैं...

करने को तुमसे बातें बहुत हैं
मगर बांध देते हैं जो मुझे
ऐसे कम्बख़त दायरे बहुत हैं
हर लहज़े में मेरे तुम ही तुम हो
इन आंखों में तुम्हारे सपने बहुत हैं
एक दूजे में हम समा जाएँ मगर
जुदाई में जो कटनी हैं वो रातें बहुत हैं
होनी हैं तुमसे जो छुप छुप कर
चंद लम्हों में सिमटी मुलाकातें बहुत हैं
इनका ही सहारा है इस दीवाने को तुम्हारे
वरना पल पल में मेरी मौतें बहुत हैं
Wednesday, August 5, 2009
बोल के लब आज़ाद हैं तेरे...
हा हा भारत दुर्दशा देखी न जाई।
भरतेन्दु हरिशचन्द्र की ये पंक्तियां उस समय भारत की दुर्दशा पर विलाप थी। यदि आज इन पंक्तियों को एडिट कर मीडिया दुर्दशा लिख दिया जाए तो ग़लत नहीं होगा। इन आम चुनावों में मीडिया द्वारा किये गये काम से यह साबित भी होता है। 15वीं लोकसभा के चुनाव के दौरान जिस तरह की पत्रकारिता देखने को मिली वह पत्रकारिता का मज़ाक उड़ाने जैसा है।
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने इन आम चुनावों में क्या वाकई निष्पक्षता से काम किया? क्या उस पर बाज़ारवादी सोच निष्प्रभावी रही? या वह भी नव उदारवादी लहरों पर सवार होकर निजीकरण की सवारी करता रहा? समूचे मीडिया वर्ग ने लोकतंत्र के इस महायज्ञ में अपने उसूलों की आहुति दे डाली।
हर खबरिया चैनल और अखबार किसी एक राजनीतिक पार्टी के रंग में रंगा हुआ नज़र आ रहा था। सर्वश्रेष्ठ खबर देने वाले से लेकर हकीकत बयां करने वाले मीडिया में खबरों का अधमतम स्तर देखने को मिला। खबरों के चयन और उनके प्रस्तुतिकरण में कहीं कोई संतुलन नज़र नहीं आया। बल्कि ऐसा लग रहा था जैसे वह अप्रत्यक्ष रूप से वोटर को किसी एक पार्टी की ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहा हो।
दिलचस्प बात तो यह है कि इस बाज़ारवादी मीडिया ने चुनाव के नतीजे घोषित होते ही गिरगिट की तरह अपना रंग बदल लिया। जो ग्रुप चुनाव से पहले कांग्रेस की मुखालफत करता था वह आज उसी की पैरवी कर रहा है। आजकल तो मीडिया में खबरों का जैसे अकाल सा पड़ गया है। चैनलों के प्राइम टाइम और अखबारों की स्पेशल स्टोरीज़ में हर कहीं भाजपा के बिखरते भांडों की ही भनभनाहट सुनाई पड़ती है।
गरीबी रेखा के सरकारी आंकड़े की कलई खोलती वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट मुद्दा नहीं बन पाती लेकिन भाजपा की अंतर्कलह गहन विचार विमर्श का विषय ज़रूर बन जाती है। इसे कश्मीर के सोपिया में दो महिलाओं के साथ हुए बलात्कार व हत्या की खबरों के वहां के लोकल न्यूज चैनलों पर दिखाने और उसके बाद वहां के मुख्यमंत्री द्वारा चैनलों को फटकारने की दुखद घटना से समझा जा सकता है। इसका ज़िक्र लेखिका अरुंधति रॉय ने भी अपने एक साक्षात्कार के दौरान किया था।
दरअसल यह सारा खेल विज्ञापन पाने को लेकर किया जाता है फिर चाहे वो विज्ञापन सरकारी हो या निजी। मुख्यमंत्री की फटकार में यह बात छुपी थी कि उस चैनल को दिये जा रहे सरकारी विज्ञापन किसी भी समय बंद किये जा सकते हैं। रोजर फेडरर के फ्रेंच ओपन जीतने के अगले ही दिन देश के सर्वश्रेष्ठ न्यूज चैनल में कार्यरत एक मित्र से भेंट हो गई। संयोगवश वह स्पोर्ट्स डेस्क पर ही हैं। उनसे इस खबर की कवरेज को लेकर बात छिड़ी तो पता लगा कि उन्हें इस खबर के स्पोंसर ही नहीं मिले और मजबूरन उन्हें फेडरर की जीत को गिराना पड़ा।
अब कोई उनसे ये पूछे कि भैया आप पत्रकारिता कर रहे हैं या सिर्फ विज्ञापन प्रसारण का माध्यम बने हुए हैं? खैर! यह नये दौर की पत्रकारिता है जहां सब चलता है मगर समाचार ही नहीं चल पाता है। यह सब कुछ किया जाता है पैसे की खातिर और पैसा आता है ग्रुप या पार्टी विशेष के पक्ष में बोलने व छापने से। चुनाव से पहले अखबारों में स्पेस खरीदने की होड़ सी लगी हुई थी। ऐसे में ज़रा सोचिए कि हमारा मीडिया कितना निष्पक्ष और संतुलित होकर खबर देता है? वह स्टेट के खिलाफ बोलने व सरकारी नीतियों की आलोचना करने में कितना स्वतंत्र है? क्या उसे अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी है? यदि नहीं तो फिर उस पर कितना भरोसा किया जाए?
ऐसे बहुत से अनसुलझे सवाल हैं जिनके जवाब दोराहे पर खड़े मीडिया के पास भी नहीं हैं। पर क्या उसका यह चाल चलन सही है? क्या उसे भी कुछ बाज़ारवादी शक्तियों की कठपुतली बन जाना चाहिए? बाज़ार के अपने सिद्धांत होते हैं, वह मुनाफा देखता है। हर बाज़ारवादी के लिए स्वहित प्रधान होता है बाकि सब गौण। लेकिन पत्रकारिता का अस्तित्व बाज़ार से नहीं समाज से है जिसके शब्दकोश में स्वहित सबसे बाद में आता है।
मीडिया की मौजूदा स्थिति न तो खुद मीडिया के लिए ही अच्छी है और न ही समाज के लिए। बेहतर होगा कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ से लोगों का भरोसा उठे उससे पहले वह आत्मनिरीक्षण करे और पत्रकारिता की वास्तविक दिशा से न भटके। जिस बदलाव की बयार में आज का मीडिया बहता जा रहा है वह सकारात्मक बदलाव नहीं है। यहां उसका यह तर्क भी निराधार साबित हो जाता है कि परिवर्तन में ही जीवन है। क्योंकि जीवन सदैव सकारात्मक परिवर्तन में होता है।
Saturday, July 11, 2009
दो दिल कुछ कह रहे हैं...सुनिए तो!

ओबामा – कौन कहता है कि हम देखते हैं...हम तो उनकी इक अदा पर आह भरते हैं...
सार्कोजी – तुमसे बढ़ कर दुनिया में ना देखा कोई और...
ओबामा – लंदन देखा, पैरिस देखा और देखा जापान...
सारे जग में कोई नहीं है तुझ सा मेरी जान...
सार्कोजी – तुम आ गए हो...नूर आ गया है...
ओबामा – देखो जरा उनका मुड़ना जुल्म ढ़हा गया
सार्कोजी – बिखरी जुल्फें हैं कि घनघोर घटा घिर आई है
ओबामा – एक बार जो मुड़कर देख लें वो...
सार्कोजी – कसम उड़ान झल्ले की हम तो बिन मारे ही मर जाएंगे।
ओबामा – इस नीरस मीटिंग की सारी थकान दूर हो गई।
सार्कोजी – इस ब्राजीलियन बला के सामने तो इटली की सारी रंगीनियां फीकी पड़ गई हैं।
ओबामा – सार्कोजी साहब एक शेर अर्ज़ करें?
सार्कोजी – मार ही डालोगे...
ओबामा – मेरे पास मेरे हबीब आ, जरा और दिल के करीब आ
तुझे धड़कनों में उतार लूं कि बिछ़़ड़ने का कोई डर ना हो...
सार्कोजी – ले चलूं तुझे इस दुनिया से कहीं दूर... जहां तेरे मेरे सिवा तीसरा कोई और ना हो...
ओबामा - देखिए जनाब! अद्भुत् नजारा देखिए...चांद दिन में ही ज़मीं पर उतर आया...
सार्कोजी - चांद नहीं मिस्टर, परियों की शहजादी खुद उतर आई है।
ओबामा – अरे छोड़िए जनाब परियां तो बच्चों की कहानी में हुआ करती हैं।
सार्कोजी – तो फिर इस बला की खूबसूरती को क्या कहा जाए?
ओबामा – वो छोड़िए पहले जरा एक फोटो तो करा ली जाए साथ में।
सार्कोजी – हां हां क्यों नहीं, भला कौन नहीं चाहेगा इनका साथ।
ओबामा – तो फिर देरी किस बात की है सार्कोजी – अरे जरा संभल कर! अंतर्राष्ट्रीय मीडिया यहां मौजूद है
ओबामा – मीडिया को भी तो चाहिए कुछ मसालेदार...
सार्कोजी – तो फिर दिल खोल कर करें चक्षु स्नान... गुस्ताखी माफ!
Friday, July 10, 2009
राग मल्हार...

आज सुबह से ही मौसम कुछ खुशगवार लग रहा था। भगवान भास्कर बादलों की ओट ले ले कर आंख मिचौली खेल रहे थे। ठंडी हवा तन मन को शीतल किए जा रही थी। सावन लगने के बाद यह पहली सुबह थी जो सावन की सी लग रही थी। सावन हमारे कवियों, फिल्मकारों, और संगीतकारों के लिए बड़ा ही प्रेरणास्पद विषय रह है। सावन लगते ही प्रकृति भी मानो संवरने लगती है। घास हरी होने लगती है तो पेड़ों पर नई कोंपलें आने लगती हैं। मंद मंद शीतल पवन ऐसे बहती है कि उसके साथ मन मस्तिष्क भी बहता ही चला जाता है। मोर पपीहे गुनगुनाने लगते हैं तो कोयल की मधुर कूक भी गूंजने लगती है। समूचा वातावरण संगीतमय, हरा-भरा और ताजगी देने वाला हो जाता है। कुदरत यदि कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो और ऊपर से रिमझिम बरसात हो तो क्या कहने। आज की सुबह कुछ ऐसा ही नजारा पेश कर रही थी। सौभाग्य से आज बस में सीट मिल गई थी वह भी खिड़की के साथ। मंद- मंद बहती हवा बरसते बादलों के साथ मिलकर हल्की बौछारों से बदन को भिगोती हुई मुझे अंदर तक भिगो रही थी। खिड़की से बाहर झांक कर देखा तो बरसात की बूंदें सड़क पर मोती बुन रही थी। बाइक वालों ने फ्लाई ओवर की शरण ली तो कारों के एसी रोजाना की तरह चल रहे थे। न जाने क्यों मगर ये बरसात रिक्शा वालों को तर बतर न कर पाई। शायद उनके लिए इसके मायने केवल इतने ही हों कि आज उन्हें तपती धूप में पैडल मारने से थोड़ा राहत मिलेगी। कोई ऑफिस पहुंचने के चक्कर में इस बारिश से बचता नजर आया तो कोई प्रेमी युगल सावन के पहले बादल से खुद को सराबोर करने का मौका ना छोड़ते हुए नजर आया। तो वहीं कोई कोई युगल एक ही छाते में ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’ की तर्ज पर मतवाली चाल चलता दिखा। ऐसे में भला कौन सहृदय होगा जिसके हृदय का कंपन्न तेज ना हो...मस्तिष्क में अनायास ही मेघदूत की यक्षिणी और अपनी प्रेयसी दोनों साथ साथ प्रवेश कर गई। यक्षिणी के साथ प्रेयसी का आना इसलिए कि वह भी विरह व्यथा में थी तो इधर हम भी एक दूजे से दूर और जुदा हैं। यह अलग बात है कि हम जुदा होकर भी जुदा हो नहीं पाते हैं। लेकिन ऐसी घनघोर घटाओं में भी गर उनका साथ ना हो तो अखरता है...दिल को जलाता है...तन बदन में एक आग सी लगाता है...दिल में खलबली मचाता है...मुझे बेचैन कर जाता है...मैं मिलने को तरस जाता हूं...उनका साथ पाने को तरस जाता हूं...
Wednesday, July 8, 2009
मंगलम् भगवान विष्णु मंगलम्...

‘मंगलम् भगवान विष्णु मंगलम् गरुड़ध्वज, मंगलम् पुंडरीकाक्षं मंगलाय तनो हरि’...यह मंत्र है सृष्टि के पालनहार भगवार विष्णु का जिसमें उनके रूप का बखान करते हुए उनसे मंगल कामना की गई है। मगर ‘कम्बख्त इश्क’ में जिस तरह से इसे फ़िल्माया गया है उससे लगता है कि यह मंत्र एक्सक्लूसिवली करीना की छरहरी कोमल कांत देह के लिए ही रचा गया है। हालांकि इस पर थोड़ा विवाद हुआ भी और मीडिया में खबर आई गई हो गई। लेकिन एक बात और जो ग़ौर करने लायक है कि न सिर्फ गाने में प्रयुक्त मंत्र के फिल्मांकन में अभद्रता बरती गई है बल्कि इस मंत्र का उच्चारण भी अशुद्ध किया गया है। यह कोई अंतराक्षरी का खेल नहीं है यहां हलन्त और विसर्ग के लगने या हटने से ही अर्थ का अनर्थ हो जाता है। लेकिन इस बात पर न ही तो किसी का ध्यान गया और न ही मीडिया ने अपनी ओर से कोई पहल ही की। गाने के बीच में यह मंत्र इस्तेमाल किया गया है और इस पर विज़ुअल ऐसा फिट किया गया है जिसका इस मंत्र से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। इस मंत्र के दौरान करीना एक जहाज पर बिकनी पहने अपने हुस्न का जलवा इस कुछ ऐसे बिखेर रहीं हैं मानो यह मंगल कामना उनकी तरुण काया के लिए ही की जा रही हो। कुछ खास किस्म के दृश्यों को लेकर हमारे बॉलीवुड में एक कथन बहुत प्रचलन में है कि यह तो कहानी की मांग थी लेकिन इस गाने में इस मंत्र पर करीना का नंगापन तो कहीं से भी कहानी या संगीत की मांग नज़र नहीं आया।

हालांकि ऐसा नहीं है कि इससे पहले फिल्मों में वैदिक मंत्रों का प्रयोग नहीं हुआ। यदि पुरानी फिल्मों की बात करें तो उनकी तो शुरूआत ही वैदिक मंत्रों से हुआ करती थी। इसके बाद इस दौर की फिल्मों में भी संस्कृत के शलोकों और मंत्रों का इस्तेमाल होता आया है। मसलन करण जौहर की कभी खुशी कभई ग़म में ‘त्वमेव माताश्च पिता त्वमेव’ का बेहतरीन प्रयोग देखने को मिलता है। लेकिन कम्बख्त इश्क के निर्माता निर्देशक दोनों की ही बुद्धि क्या घास चरने गई थी जो इस तरह की बेहुदा हरकत कर बैठे। जहां तक करीना कपूर की बात है तो उनके लिए तो अपने तराशे हुए कोमल बदन का प्रदर्शन करना शायद गर्व की बात हो और फिर उन्हें पैसे भी तो इसी बात के दिए जा रहे हैं। ताज्जुब की बात तो यह है कि संस्कृति के ठेकेदारों की नज़र भी इस मंत्र के साथ किए गए इतने भद्दे मज़ाक पर नहीं पड़ी। या हम यह समझें कि उनका ज़ोर भी सिर्फ आम आदमी पर ही चलता है। एक संभावना और बनती है कि कम्बख्त इश्क की अधिकतर शूटिंग हॉलीवुड में हुई है तो क्या यह समझा जाए कि सिनेमा के ज़रिए विशुद्ध भारतीय संस्कृति को बेचा जा रहा है। तो निर्माता महोदय बताएंगे कि यह सौदा उन्होंने कितने में किया। बहरहाल सौदा तो हो चुका है, विवाद की लपटें ज़यादा ऊपर तक उठ नहीं पाई, चिंगारी के फिर से भड़कने की संभावना बहुत कम ही है और यदि इसकी लपटें उठती भी हैं तो इसमें झुलसने वाले निर्माता निर्देशक तो होंगे नहीं। बहुत ज़यादा हुआ तो गाने से इस दृश्य को हटा लिया जाएगा। बॉलीवुड ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब किसी फिल्म से किसी खास दृश्य को फिल्माने के बाद उसे हटा लिया गया हो। अमिताभ बच्चन की आने वाली फिल्म ‘रण’ में राष्ट्रीय गान के साथ कुछ इसी तरह का खिलवाड़ किया गया था जिस पर हाई कोर्ट ने पाबंदी लगा दी। लेकिन कमबख्त इश्क की ‘कमबख्तता’ पर अभी तक किसी का ध्यान क्यों नहीं गया, क्या देश के शीर्षस्थ कोर्ट को जिसका आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते स्वयं मुंडकोपनिषद् से लिया गया है इसका खयाल तक नहीं आया कि यह भारतीय संस्कृति को दूषित करने की कोशिश है। क्या वहां भी यह विचार तक नहीं आया कि इसके दूरगामी परिणाम कितने भयंकर हो करते हैं? आज हम इन मंत्रों को जिस रूप में दिखला रहे हैं आने वाली पीढ़ी पर इसका क्या असर होगा? कौन इसकी ज़िम्मेदारी लेगा? क्या राष्ट्र की संस्कृति, उसकी अस्मिता से संबंधित मामलों पर कोर्ट को स्वयं संज्ञान नहीं लेना चाहिए? बहरहाल हम दुआ के सिवा और कर भी क्या सकते हैं कि ईश्वर, अल्लाह इन निर्माता निर्देशकों को सद्बुद्धि दे। आखिर मंगलम् भगवान विष्णु मंगलम् में भी तो यही कामना की गई है।
Saturday, July 4, 2009
वो बूढ़ी औरत...

पिछले दिनों एक साक्षात्कार के सिलसिले में लोकसभा जाना हुआ। इसकी आरंभ सीमा के पास ही एक बूढ़ी औरत बैठी रो रही थी। मैनें उनसे पूछा क्या हुआ मां जी, मगर कुछ कहने के बजाय उनकी सिसकियां और बढ़ गई। मैंने फिर उनसे कहा कि देखिए मैं आपके बेटे के समान हूं। कुछ बताएं तो शायद मैं आपकी कोई मदद कर सकूं। इतना कहने पर वह मुझे बताने को राज़ी हुई। कहने लगी बेटा! मेरे बच्चे भूख से बिलख रहे हैं...आंखें अंदर धंसे जा रही हैं...पेट कमर से जा लगा है...हाथ-पैर कीर्तन कर रहे हैं...वो भूख से बिलख रहे हैं...और मुझसे उनका बिलखना देखा नहीं जाता। सत्तू पिलाकर सुलाने की कहानी तो अब पुरानी हो गई, यहां तो वह भी नसीब नहीं होता। खाने को घर में आटा दाल कुछ नहीं है। बेटे खेती करते हैं उससे जो फसल आती है उसे बेचकर भी इतना पैसा नहीं मिल पाता कि साल भर का काम चल सके। पैदावार होती है तो मंडी में पहुंचने से पहले ही साहूकार आ धमकता है सूद समेत अपना पैसा वापस मांगने। फिर खून पसीना बहाकर, दौड़-धूप करके, भरी सर्दी में भी रात भऱ खेतों में जागकर पैदा की हुई फसल भी हमारी कहां रह जाती है।
मैंने पूछा कि माता जी जब सरकार ने ऋण प्रक्रिया इतनी सरल कर दी है तब भी आप साहूकार से कर्ज लेती ही क्यों हैं? वृद्धा कहने लगी कि हां सुनने में तो आया था कि सरकार किसानों को बहुत सस्ते कर्ज दे रही है और जिनसे कर्ज चुकाया नहीं गया उनके कर्ज माफ भी किये हैं। हां बेटा, कर्ज लेना आसान हुआ है पर कागजों से कानों तक ही इसकी आसानी है। जब कर्ज लेने जाओ तब पता लगती है इसकी ‘सरलता’। आज फॉर्म नहीं है...अगले सप्ताह आइएगा...फिर जैसे-तैसे फॉर्म मिलता है तो पता लगता है कि अधिकारी महोदय 15 दिन की छुट्टी पर हैं...जब आएंगे तो उसके बाद ही बात कुछ आगे बढ़ेगी। तब तक खाद बीज देने का मौसम निकल जाता है। फिर चाहे वो ऋण मिले या ना मिले उसका कोई मतलब नहीं रह जाता। इससे तो ठीक हमारा साहूकार है जिससे कर्जा मांगो तो समय पर मिल तो जाता है। फिर हम चाहे जैसे उस ऋण को उतारते रहें।
मैं मन ही मन सोचने लगा कि बड़ी त्रासद स्थिति है आज निजी से लेकर सरकारी बैंक तक सभी घरों में घुस घुस कर घरों के लिए ज़बरदस्ती लोन देने में मसरूफ हैं और जिसे ज़रूरत है उसे ही लोन नहीं मिलता। वृद्धा ने आंखों से आंसू पोंछते हुए कहा कि आजकल मार्केट के वो बड़ी बड़ी चैन सिस्टम वाले लोग भी सब्जियों पर अपना हक जमाने आ जाते हैं। पहले कम से कम जो उगाते थे उसे बेचकर पेट तो भर लिया करते थे। मगर अब तो अगर बाजा़र में खरीदने जाओ तो दाम तिगुने-चौगने सुनते ही पैरों तले ज़मीन खिसक जाती है। सब्जियां तो धीरे धीरे हर आम आदमी की थाली से बाहर होती जा रही हैं। सरकार बार बार कह रही है कि मंहगाई दर कम हो रही है फिर ये समझ नहीं आता कि महंगाई क्यों हनुमान की पूंछ की तरह लगातार बढ़ती जा रही है। मैंने उनसे पूछा कि तो फिर यहां बैठकर आप इस तरह से विलाप क्यों कर रही हैं? वे लगी कहने कि चुनाव से पहले एक हाथ हमारा हाथ थामने आया था और 3 रुपये किलो में 25 किलो अनाज हर महीने देने का वादा किया था। मगर आज भी मेरे बच्चे सिर्फ पानी पीकर ही सोने को मजबूर हैं। अब वो हाथ कहीं दिखाई नहीं देता है। सोचते हैं कि ना ही तो कोई हाथ सिर पर है और ना ही हमारी ज़िंदगी में कमल ही खिलता है। यहां आकर इसलिए बैठी थी कि उनमें से कुछ लोग दिखाई दें तो उनसे कहूंगी कहां हैं उनके वादे। वोट मांगते वक्त तो बड़ी बड़ी हांकते थे और अब मुड़कर देखते भी नहीं। मगर कोई फायदा नहीं हुआ, वे लोग अब मुझे पहचानने से ही इंकार कर रहे हैं।
संवेदनाएं जवाब देने लगी थी और मैं उनसे पूछ बैठा कि आप कौन हैं, आपका नाम क्या है। उनकी सिसकियां फिर तेज़ होने लगी। लगा जैसे उनके किसी पुराने ज़ख्म को छेड़ दिया हो। वे कहने लगी कि तुम भी मुझे नहीं पहचान रहे हो...मैं वो हूं जिसकी अज़ादी के बाद से ही अनदेखी होती आई है। मैं तो भारत के हर छोटे-बड़े गांव, कस्बे, शहर में रहती हूं। अब मेरे बुढ़ापे का सहारा भी कोई नहीं है। मेरा नाम ग़रीबी है और मेरे जो करोड़ों बच्चे भूख से बिलख रहे हैं वो ग़रीब हैं। इतना कहकर मानो उनके ढांढस का बांध टूट गया था और उनकी आंखें छलक आई...
Sunday, June 28, 2009
अब तो आओ बरखा रानी...
गर्मी से निकलती आहदिल में बरसात की चाह
हर दिन एक आस
कि अब घिरें काली घटाएं
अपनी ठंडी बूंदों से
समस्त भूतल को भिगो जाएं
घनघोर घटा कुछ ऐसी छाए
बूढ़े, बच्चों और जवानों को भी
रिमझिम बारिश राहत दे जाए
किसानों की दुआओं में भी
है सिर्फ आजकल पानी
मानसून में आई देरी से
सरकार का भी निकल रहा है ‘पानी’
नीलगगन में ना आई ग़र बदली
संसद में छा जाएगी
विपक्ष करेगा पानी-पानी
सरकार फिर झल्लाएगी
कब बुझेगी धरती की प्यास
कब हरी होगी
मेरे आंगन की घास
सड़क पर पड़े हैं हाथ फैलाए
प्राण हैं निकलने को
त्राहि माम कर रहे
दो बूंद तेरी पाने को
कहीं फसल तो कहीं प्रेयसी
राह देखती प्रियतम की अपने
अब तो आओ बरखा रानी
Saturday, June 20, 2009
...दिल करता है
कुछ कहने को दिल करता हैबातें करने को दिल करता है
दिल की बात कब तक रखें दिल में
प्यार जताने को दिल करता है
तुम न मानो मर्ज़ी तुम्हारी
तुम्हारा ही ख्याल दिल में आता है
कुछ कहने को दिल करता है...
रात हो, दिन हो, हो सुबह या शाम
हर घड़ी तुम्हे सोचने को दिल करता है
बहुत बना लिए रेत के घरौंदे
दिल में आशियाँ बनाने को दिल करता है
दम निकलता है बहुत सितारों की छांव में
गेसुओं की छांव तले रहने को दिल करता है
कुछ कहने को दिल करता है ...
हार गए चंदा को तकते तकते
अब तुम्हे देखने को दिल करता है
छोड़ आओ दुनिया सारी, पास बैठो मेरे
बातें करने को दिल करता है
तुमसे मिलने को दिल करता है
कुछ कहने को दिल करता है...
मिलने को दिल करता है...
Thursday, June 18, 2009
जाते जाते...
वो रुके तो नहीं,
मगर अपनी याद छोड़ गए जाते जाते...
हाथों में हाथ लिए...
आंखों से ही ढेरों बातें करते...
बातों में होती थी नोंक झोंक भी,
फिर भी सदा मुस्कुराते रहते...
उनका मुड़ मुड़ कर देखना जाते जाते...
याद आता है बहुत,
उनका इठलाना जाते जाते...
प्यार था जो दिल में छुपा,
ज़ाहिर किया था हमने...
मगर वो दिल की बात को,
दिल ही में रखने का मशवरा दे गए जाते जाते...
कैसे कहें अब कैसे हैं हम...
शरीर मात्र ही रह गया है यहां.
आत्मा तो वही ले गए जाते जाते...