Wednesday, August 5, 2009

बोल के लब आज़ाद हैं तेरे...

आवहुं सब मिलिकै रोवहुं भारत भाई

हा हा भारत दुर्दशा देखी न जाई।

भरतेन्दु हरिशचन्द्र की ये पंक्तियां उस समय भारत की दुर्दशा पर विलाप थी। यदि आज इन पंक्तियों को एडिट कर मीडिया दुर्दशा लिख दिया जाए तो ग़लत नहीं होगा। इन आम चुनावों में मीडिया द्वारा किये गये काम से यह साबित भी होता है। 15वीं लोकसभा के चुनाव के दौरान जिस तरह की पत्रकारिता देखने को मिली वह पत्रकारिता का मज़ाक उड़ाने जैसा है।

लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने इन आम चुनावों में क्या वाकई निष्पक्षता से काम किया? क्या उस पर बाज़ारवादी सोच निष्प्रभावी रही? या वह भी नव उदारवादी लहरों पर सवार होकर निजीकरण की सवारी करता रहा? समूचे मीडिया वर्ग ने लोकतंत्र के इस महायज्ञ में अपने उसूलों की आहुति दे डाली।

हर खबरिया चैनल और अखबार किसी एक राजनीतिक पार्टी के रंग में रंगा हुआ नज़र आ रहा था। सर्वश्रेष्ठ खबर देने वाले से लेकर हकीकत बयां करने वाले मीडिया में खबरों का अधमतम स्तर देखने को मिला। खबरों के चयन और उनके प्रस्तुतिकरण में कहीं कोई संतुलन नज़र नहीं आया। बल्कि ऐसा लग रहा था जैसे वह अप्रत्यक्ष रूप से वोटर को किसी एक पार्टी की ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहा हो।

दिलचस्प बात तो यह है कि इस बाज़ारवादी मीडिया ने चुनाव के नतीजे घोषित होते ही गिरगिट की तरह अपना रंग बदल लिया। जो ग्रुप चुनाव से पहले कांग्रेस की मुखालफत करता था वह आज उसी की पैरवी कर रहा है। आजकल तो मीडिया में खबरों का जैसे अकाल सा पड़ गया है। चैनलों के प्राइम टाइम और अखबारों की स्पेशल स्टोरीज़ में हर कहीं भाजपा के बिखरते भांडों की ही भनभनाहट सुनाई पड़ती है।

गरीबी रेखा के सरकारी आंकड़े की कलई खोलती वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट मुद्दा नहीं बन पाती लेकिन भाजपा की अंतर्कलह गहन विचार विमर्श का विषय ज़रूर बन जाती है। इसे कश्मीर के सोपिया में दो महिलाओं के साथ हुए बलात्कार व हत्या की खबरों के वहां के लोकल न्यूज चैनलों पर दिखाने और उसके बाद वहां के मुख्यमंत्री द्वारा चैनलों को फटकारने की दुखद घटना से समझा जा सकता है। इसका ज़िक्र लेखिका अरुंधति रॉय ने भी अपने एक साक्षात्कार के दौरान किया था।

दरअसल यह सारा खेल विज्ञापन पाने को लेकर किया जाता है फिर चाहे वो विज्ञापन सरकारी हो या निजी। मुख्यमंत्री की फटकार में यह बात छुपी थी कि उस चैनल को दिये जा रहे सरकारी विज्ञापन किसी भी समय बंद किये जा सकते हैं। रोजर फेडरर के फ्रेंच ओपन जीतने के अगले ही दिन देश के सर्वश्रेष्ठ न्यूज चैनल में कार्यरत एक मित्र से भेंट हो गई। संयोगवश वह स्पोर्ट्स डेस्क पर ही हैं। उनसे इस खबर की कवरेज को लेकर बात छिड़ी तो पता लगा कि उन्हें इस खबर के स्पोंसर ही नहीं मिले और मजबूरन उन्हें फेडरर की जीत को गिराना पड़ा।

अब कोई उनसे ये पूछे कि भैया आप पत्रकारिता कर रहे हैं या सिर्फ विज्ञापन प्रसारण का माध्यम बने हुए हैं? खैर! यह नये दौर की पत्रकारिता है जहां सब चलता है मगर समाचार ही नहीं चल पाता है। यह सब कुछ किया जाता है पैसे की खातिर और पैसा आता है ग्रुप या पार्टी विशेष के पक्ष में बोलने व छापने से। चुनाव से पहले अखबारों में स्पेस खरीदने की होड़ सी लगी हुई थी। ऐसे में ज़रा सोचिए कि हमारा मीडिया कितना निष्पक्ष और संतुलित होकर खबर देता है? वह स्टेट के खिलाफ बोलने व सरकारी नीतियों की आलोचना करने में कितना स्वतंत्र है? क्या उसे अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी है? यदि नहीं तो फिर उस पर कितना भरोसा किया जाए?

ऐसे बहुत से अनसुलझे सवाल हैं जिनके जवाब दोराहे पर खड़े मीडिया के पास भी नहीं हैं। पर क्या उसका यह चाल चलन सही है? क्या उसे भी कुछ बाज़ारवादी शक्तियों की कठपुतली बन जाना चाहिए? बाज़ार के अपने सिद्धांत होते हैं, वह मुनाफा देखता है। हर बाज़ारवादी के लिए स्वहित प्रधान होता है बाकि सब गौण। लेकिन पत्रकारिता का अस्तित्व बाज़ार से नहीं समाज से है जिसके शब्दकोश में स्वहित सबसे बाद में आता है।

मीडिया की मौजूदा स्थिति न तो खुद मीडिया के लिए ही अच्छी है और न ही समाज के लिए। बेहतर होगा कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ से लोगों का भरोसा उठे उससे पहले वह आत्मनिरीक्षण करे और पत्रकारिता की वास्तविक दिशा से न भटके। जिस बदलाव की बयार में आज का मीडिया बहता जा रहा है वह सकारात्मक बदलाव नहीं है। यहां उसका यह तर्क भी निराधार साबित हो जाता है कि परिवर्तन में ही जीवन है। क्योंकि जीवन सदैव सकारात्मक परिवर्तन में होता है।

3 comments:

  1. यथार्थ है।

    रक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
    विश्व-भ्रातृत्व विजयी हो!

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  2. satya kaha vikas ji.vyapar ban chuka hai ye aaj...aur hum sab vyapari...accha lekh hai...lekin itne dino ke baad prakashit hue lekh me main tumse kuch aur apeksha kar rha tha...mujhe umeend hai ki aane wale dino me tum mere vichaaro ko yathaarth me badloge...kuch aur jyada jwalant likho mitr...kuch aisa jiski umeed mujhe tumse hai aur jise likhne ke kaabil tum hi ho...shubhkamnaye.

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