Friday, September 25, 2009

क्या आपको हिंदी बोलने पर गर्व होता है?


इन दिनों विभिन्न संस्थानों में हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है या कुछ में मना लिया गया है। एक तो हिंदुस्तान में हिंदी की यह हालत हो गई है कि यहां इसी के लिए पखवाड़े मनाए जाने लगे हैं। दूसरा इन पखवाड़ों में एक दिन हिंदी की (दुर्) दशा पर गोष्ठी का आयोजन कर अपना कर्त्तव्य पूरा समझ लिया जाता है।
ऐसी ही एक गोष्ठी में श्रोताओं की कतार में बैठकर कुछ बुद्धिजीवियों को सुनने का सौभाग्य हमें भी मिला। हिंदी का भविष्य बनाम संगोष्ठी का विषय था भविष्य की हिंदी। इस संगोष्ठी में अंग्रेज़ी से विधिवत इश्क करने वाले और हिंदी के खलनायक कहे जाने वाले एक बुद्धिजीवी को सुनकर वाकई बहुत अच्छा लगा। उन्होंने चिंता जताई कि 2050 तक हिंदी तकरीबन ख़त्म हो जाएगी। कारण आज ग़रीब से ग़रीब आदमी भी चाहता है कि उसका बच्चा अंग्रेज़ी पढ़े, अंग्रेज़ी बोले, अंग्रेज़ी खाए, अंग्रेज़ी पीए और अंग्रेज़ी ही जीए। अब जब सारे काम अंग्रेज़ी में ही होने लगेंगे तो भला हिंदी कहां बचेगी। उनका मानना था कि तब तक ज़िंदगी के तमाम गंभीर काम मसलन पढ़ना और लिखना अंग्रेज़ी में होने लगेंगे। ठीक ही है हमारे कुछ अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ने वाले मित्रगण हैं जो अंग्रेजी में ही सोचते हैं। उनकी समस्या ये है कि उनका सॉफ्टवेयर हिंदी को एक्सेप्ट ही नहीं करता है। अब समझा जा सकता है कि जब ख़याल ही अंग्रेज़ी हो जाएंगे तो आगे क्या होगा।
जहां भाषा की बात होती है वहां उसके बहती नदी की तरह होने की बात ज़रूर की जाती है। साथ ही भाषा को संस्कारों का वाहक भी माना जाता है। सो ये सारी बातें यहां भी हुई। ठीक भी है ठहरा हुआ पानी सड़ जाता है। भाषा की जीवंतता भी उसके बहते रहने में ही है। इस बहाव में अगर कुछ शब्द बहकर भाषा से निकल जाते हैं तो उस पर विलाप नहीं करना चाहिए। उनकी जगह अंग्रेज़ी के कुछ शब्द अपना अभिन्न स्थान बना लेते हैं तो अच्छी ही बात है। वैसे भी सहिष्णुता तो हमारी सांस्कृतिक विशेषता है। इस तरह के बदलाव से हम आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन इस आगे बढ़ने की प्रक्रिया में हम ये नहीं देखते कि हम उत्कृष्टता की ओर बढ़ रहे हैं या निकृष्टता की ओर। इसे देखकर इसका अंतर करना भी ज़रूरी है।
अब कोई कह सकता है कि जब रूम बोलने से भी कमरे की तस्वीर उभरती है, मोम या ममा बोलने से मां का ख़याल आ जाता है तो फिर आपको ऐसे शब्दों को हिंदी में मिला लेने से आखिर क्या ऐतराज़ है? तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं है। लेकिन जब ये भाषाई आदान प्रदान प्रभुता के भाव से वर्णसंकरता में तब्दील होने लगता है तो हमें ऐतराज़ होने लगता है। यानि हिंदी बोलें तो हमें हीन समझा जाता है। जब ये परिवर्तन हीनता के इसी भाव से ग्रसित होकर होने लगता है तो यह ख़ुद की पहचान मिटाने जैसा है।
चलते चलते एक बात और। हो सकता है कि ये बात आपको कड़वी लगे लेकिन कभी कभी नीम और करेला भी फायदेमंद होते हैं। क्या आप अपनी मां को मोरंजन का साधन बनते देख सकते हैं? लेकिन भविष्य की तस्वीर तो कुछ यही कहती है कि हिंदी केवल सिनेमा के पर्दे पर, टीवी की स्क्रीन पर ही रह जाएगी। अब मनोरंजन आज पूरी तरह से बज़ार का हिस्सा हो चुका है। ख़ुदा ना खास्ता अगर ऐसा होता है तो क्या हिंदी बाज़ारू नहीं हो जाएगी? तो क्या आप हिंदी को बाज़ारू बनते देख सकते हैं? या फिर हिंदी को अपना गर्व समझते हैं? अगर आपको कोई आपका अपना घर छोड़कर किराए के मकान में जाकर रहने को कहे तो आपको कैसा लगेगा? क्या आप उसे वैसे ही अपना सकते हैं? क्या वहां भी वैसा ही महसूस कर सकते हैं जैसा अपने घर में करते हैं? क्या आप वहां जी पाएंगे? तो फिर आप अपनी भाषा को छोड़कर किसी विदेशी भाषा को आप कैसे अपना सकते हैं? कैसे उसे अंगीकार कर सकते हैं? अगर आपका जवाब ना है तो ज़रा सोचिए क्या हिंदी को छोड़कर जी पाएंगे...हिंदी हमारी मातृ भाषा है जो विकास हमारा हिंदी में हो सकता है उसका रत्ती भर भी अंग्रेज़ी में नहीं हो सकता। हां अंग्रेज़ी समय की ज़रूरत है लेकिन इसके लिए हम हिंदी के साथ बलात्कार क्यों कर रहे हैं?

5 comments:

  1. हिंदी हमारी न सिर्फ मात्र भाषा है, बल्कि राजभाषा भी है. हमें हिंदी पर गर्व है. लेकिन इंग्लिश से ईर्षा भी नहीं.

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  2. अंग्रेजी के असतित्व को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन हिन्दी का अपमान और विलुप्त होना बहुत चिंताजनक है मित्र।

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  3. हिन्दी हैँ हम...वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा...


    जय हिन्दी

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  4. जी हाँ विकास जी, मुझे तो हिन्दी बोलने पर बहुत गर्व होता है। मेरी मातृभाषा पंजाबी है परंतु लेखन/अभिव्यक्ति की भाषा हिन्दी है। हिन्दी की अंग्रेजी से कोई लड़ाई या द्वन्द्व नहीं है। हिन्दी तो सभी भाषाओं को साथ लेकर चलना चाहती है। हिन्दी के विकास के साथ ही अन्य प्रादेशिक भाषाओं का विकास भी जुड़ा हुआ है। टी.वी. धारावाहिकों और फ़िल्मों के माध्यम से हिन्दी जन-जन तक पहुँची है। लोग आपके उच्चारण/accent से समझ जाते हैं कि बोलने वाला किस प्रदेश विशेष का रहने वाला है, लेकिन मुझे फख़्र है कि मेरी हिन्दी से लोग अंदाज़ा नहीं लगा पाते कि मैं किस प्रदेश की हूँ या मेरी मातृभाषा क्या है। मातृभाषा पंजाबी है लेकिन जन्म से बंगाल में हूँ । मेरी हिन्दी न तो पंजाबी शैली की है और न ही बांग्ला शैली की, मैं हिन्दी को हिन्दी की तरह बोलती हूँ।

    दिल्ली पुस्तक मेले से संबंधित आलेख भी अच्छा लगा। कभी हमारे कोलकाता पुस्तक मेले में भी आकर देखिए। कोलकाता पुस्तक मेले की बात ही निराली है। इसे उत्सव की तरह मनाया जाता है। 27 जनवरी से शुरू होगा।

    ब्लॉग की साज-सज्जा आकर्षक है। बधाई।
    - नीलम शर्मा 'अंशु'
    संस्कृति सरोकार

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  5. Hindi hamari rashtriya bhasha.....aji angrezi ko to chodiye hindi bolne wale hi bate hue ha...hindi b ab bat gayi ha...SHUDHDH HINDI aur AAM BOLCHAL KI HINDI....meri nazar me hindi ko pehle ye masla suljha lena chahiye...

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