Friday, August 22, 2014

खंड-खंड तसलीमा का निर्वासन

निर्वासन तसलीमा नसरीन की आत्मकथा का सातवां हिस्सा है, लेकिन यह तीसरे हिस्से द्विखंडितो से जुड़ा हुआ है। निर्वासन शुरू ही ‘द्विखंडित पथ’ से होता है, जिस पर लेखक का मत निषिद्ध है। निर्वासन की कहानी का मूल द्विखंडितो में ही है। न तो पश्चिम बंगाल सरकार द्विखंडितो को प्रतिबंधित करती, न तसलीमा खंड-खंड होतीं और न ही उन्हें अपने ही देश में (तसलीमा बांग्लादेश के बाद भारत को ही अपना देश कहती-मानती आई हैं) और फिर विदेशों में भटकते हुए पल-पल मरना पड़ता। एक लेखक को लिखने से रोकना, जो लिखा उसे हटाने को मजबूर करना पल-पल उसकी हत्या करने जैसा ही तो है। निर्वासन के पलटते हर पन्ने के साथ तसलीमा का दर्द गहराता जाता है। अंत तक वोटबैंक की राजनीति करने वाले नेताओं की निर्लज्जता इतनी बढ़ जाती है कि तसलीमा का पूरा लज्जा भी उसे ढकने को छोटा पड़ जाए।
निर्वासन उस महिला की कहानी है, जो उम्रभर नारी के हक और मानवाधिकारों के लिए लड़ती रही, लेकिन प्रगतिशील भारत की पतनशील राजनीति के आगे अपने अधिकारों की रक्षा न कर सकी। करती भी कैसे। एक अकेली महिला इस पुरुषसत्तात्मक समाज से कैसे लड़ लेती। लेकिन, तसलीमा लड़ीं। कट्टरपंथियों के आगे झुकी नहीं। सरकार ने उन्हें देश से निकालने की लाख कोशिशें की, पर तसलीमा ने हार नहीं मानी। निर्वासन इस अडिग, अविचल, साहसी, बेबाक और स्थापित लेखिका को विस्थापित करने और उसके दर्द की ही कहानी है।
द्विखंडितो जहां बाधाएं पार कर जिल्लत की जिंदगी सहते हुए एक मध्यमवर्गीय मुसलमान परिवार की लड़की के अपनी आत्मशक्ति का आविष्कार कर अप्रतिम तसलीमा बनने की कहानी है, वहीं निर्वासन उस अप्रतिम तसलीमा के पांवों में पड़ी अदृश्य जंजीरों व निरापद और एकाकी जीवन की दास्तां है। ऐसा जीवन, जिसमें उन्हें न किसी से मिलने की आजादी है, न लिखने की, न किसी से बात करने की, न घर से बाहर कदम रखने की। ऐसा जीवन, जिसमें वह जब भी खिड़की से बाहर झांकती हैं मौत दिखाई देती है। ऐसा जीवन, जिस पर 24 घंटे पुलिस का पहरा है। जहां अपने ही घर की दहलीज लांघने से पहले बड़े बाबू की इजाजत लेनी पड़ती है, पर कभी मिलती नहीं। जो कभी अपने ही घर में, तो कभी राजस्थान सरकार के गेस्ट हाउस में तो कभी अज्ञातवास में कैद है। जहां न बदलने को कपड़े हैं, न पढ़ने को किताबें, न जीवन साथी बन चुकी बिल्ली मीनू ही है। जिंदगी सिर्फ एक लैपटॉप की स्क्रीन से ‘रौशन’ है। और जहां सिर्फ और सिर्फ तनाव है, तनाव से बढ़ा हुआ रक्तचाप है। इससे उपजी बीमारियां हैं और उनके इलाज के लिए देश छोड़ने को मजबूर हुई तसलीमा हैं।
कहानी कलकत्ता से शुरू होती है। (तसलीमा के लिए यह कलकत्ता ही है, कोलकाता नहीं। क्योंकि कलकत्ता उनकी आत्मा में रचा-बसा है।) अचानक एक दिन’ कुछ लोग द्विखंडितो का विरोध शुरू करते हैं और हिंसा भड़क उठती है। यह विरोध धर्म को आहत करने, अनैतिकता और अश्लीलता फैलाने के नाम पर किया जाता है। यही विरोध और हिंसा पहले कलकत्ता से, फिर जयपुर से, फिर दिल्ली से और अंततः भारतवर्ष से उनके निर्वासन के कारण बनते हैं। यहां भारत की सहिष्णुता, अभिव्यक्ति की आजादी, मत प्रकट करने का संवैधानिक अधिकार सब कटघरे में हैं।
इसमें तसलीमा का मृत्यु से साक्षात्कार भी है, तो पुनर्जन्म भी। यह समाज की जिम्मेदारियों से ओवरलोड हो चुके मीडिया का आईना भी है और भावी पत्रकारों के लिए गंभीर सबक भी। इसमें मीडिया का गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार भी उजागर होता है, जिसके पीछे टीआरपी का भूत लगा है और कट्टरपंथियों की अमानवीयता भी है, जो तसलीमा के खून के प्यासे हैं। इसमें मनमोहन सरकार का दोहरा चरित्र भी सामने आता है, जब पूर्व राजनयिक और लेखक मदनजीत सिंह को लिखे आधिकारिक खत में प्रधानमंत्री कहते हैं कि तसलीमा अपनी मर्जी से भारत छोड़कर स्वीडन गई हैं। भारत ने हमेशा उनका स्वागत किया है। यहां उन पर किसी तरह का दबाव नहीं था।
निर्वासन के जरिए ही हमें वे हालात पता चलते हैं, जिनमें तसलीमा को द्विखंडितो के विवादित घोषित कर दिए गए अंश के छह पन्ने हटाने पड़े। यहां उनका गैलीलिओ को रेखांकित करना कि चर्च ही ठीक है कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूम रहा है, वे पन्ने हटाने की गहराई को उकेरता है। मन सबसे ज्यादा बेचैन तब हो उठता है, जब उन्हें गृहबंदी बनने, कोलकाता से जबरन जयपुर, जयपुर से दिल्ली, दिल्ली से अज्ञातवास और अंततः भारत छोड़ने को मजबूर कर दिया जाता है। हर जगह से दो दिन, कुछ दिन कहकर, मगर अनिश्चित काल के निर्वासन में छोड़कर।

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