Wednesday, June 16, 2010

ऐसा था फैसले का दिन

भोपाल गैस त्रासदी में निचली अदालत का फैसला आ चुका है। फैसले से सभी लोग खफा होंगे और गुस्से में भी। लेकिन मैं यहां न तो हमारी सुस्त न्याय प्रणाली पर कोई बात दोहराना चाहता हूं और न ही एंडरसन के करोड़ों-अरबों के वारे न्यारे का जिक्र करना चाहता हूं। मैं तो बस चंद वे बातें आपसे साझा करना चाहता हूं जो मैंने पिछले तीन दिनों के दौरान महसूस की। ये सारी बातें इस भीषण त्रासदी से अलग नहीं हैं। यदि आपके पास इसके लिए भीषण शब्द से भी भीषण कोई शब्द हो तो मुझे सुझाइगा जरूर। क्योंकि यह शब्द मुझे इस त्रासदी को त्रासदी कहने के लिहाज से बहुत छोटा लगता है।

बहरहाल आज की बात है तो फैसले से ही जुड़ी हुई लेकिन उस तरह नहीं जिस तरह अखबारों में खबरें छपीं। मैं इन दिनों भोपाल में ही हूं और संयोग से मुझे गैस पीड़ितों से मिलने, उनके साथ खाने-पीने, उस इलाके को देखने और उसकी आबो-हवा को महसूस करने का मौका मिला। खबरनवीस अपनी जगह हैं, वे अपने तरीके से खबरें देते हैं। मुझे उनसे कोई शिकवा नहीं है। इस मुद्दे पर अब तक कई बुद्धिजीवियों की कलम चल चुकी है। लेकिन मैं यहां किसी खबरनवीस या बुद्धिजीवी की हैसियत से नहीं बल्कि मुल्क के एक संवेदनशील और सिस्टम द्वारा प्रताड़ित शख्स की हैसियत से ये सारी बातें आपसे साझा करना चाहता हूं। ये बातें उस वक़्त की हैं, जब अदालत में फैसले की कार्रवाई चल रही थी। ये बातें उस समय की हैं, जब लोग धारा 144 को धता बताते हुए झुंड के झुंड में अदालत के बाहर जमावड़ा लगाये हुए थे। ये बातें उस समय की भी हैं, जब मध्यप्रदेश पुलिस की इतनी हिमाकत हो गयी कि उसने वरिष्ठ पत्रकार और इस मामले में सबसे पुराने कार्यकर्ता राजकुमार केसवानी की गिरेबान तक में हाथ डाल दिया और उनके साथ धक्का-मुक्की हुई।

दरअसल फैसले की सुबह मैं भोपाल के जेपी नगर, कैंची छोला, रिसालदार कॉलोनी, राजेंद्र नगर और यूनियन कार्बाइड कारखाने के ही चक्कर लगा रहा था। ये सभी गैस से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों में हैं। मैं वहां इस बात की टोह लेने पहुंचा था कि कहीं गुस्साये लोग कोई प्रदर्शन या धरने की तैयारी तो नहीं कर रहे हैं। लेकिन वहां ऐसा कुछ भी नहीं था। फैसले के दिन की सुबह रोजाना जैसी थी भी और नहीं भी। जब वहां कोई धरना प्रदर्शन नहीं हो रहा था, तो बड़ा सवाल यह है कि आखिर उस सुबह वहां हो क्या रहा था।

यूनियन कार्बाइड कारखाने के सामने चिलचिलाती धूप में तपती उस औरत का वह स्टेच्यू आज जैसे अकेले ही अदालत के फैसले के इंतजार में था। यह स्टेच्यू हादसे के बाद बनाया गया था। जेपी नगर की सुबह आज कुछ ज्यादा अलग नहीं थी। रोजाना की तरह आज भी लोग अपने-अपने काम पर चले गये थे। लड़कों का झुरमुट जो शायद स्टेच्यू के पास वाली दुकान पर बैठने के लिए ही बना था, आज भी वैसे ही गपबाजी कर रहा था। वहीं पास में चौकड़ी लगाये कुछ आदमी ताशों के सहारे अपना वक्त काट रहे थे। लेकिन इन सबके बीच जेपी नगर की हवा में यूनियन कार्बाइड की 25 साल पुरानी वह गैस जैसे आज फिर से फैल रही थी। फर्क सिर्फ इतना था कि आज उसकी रफ्तार बहुत धीमी थी। दरअसल वक्त की रफ्तार के आगे वह हार मान चुकी थी।

ताश खेलते लोगों के बीच अदालत के फैसले को लेकर न तो बहुत उत्साह था और न ही बहुत ज्यादा मायूसी। उनके बीच फैसले की छुटपुट बातें तो हो रही थीं लेकिन वे तो अपना फैसला जैसे बहुत पहले ही सुना चुके थे। अब उनमें से ज्यादातर लोग उस बारे में बात करने के इच्छुक नहीं थे। घूम-फिरकर जुबां पर मुआवजे की बातें ही आ जाती थीं। तभी पास की चाय वाली गुमटी से गालियों की आवाजें सुनाई पड़ीं। गुमटी में जाकर चाय पीते हुए उनमें घुल मिल जाने पर मालूम हुआ कि ये ‘श्रीवचन’ वॉरेन एंडरसन के लिए थे। फिर मेरे अनजानेपन को दूर करते हुए 30 साल का एक नौजवान अतीत को याद करते हुए बताने लगा कि उस रात गैस को जमीन पर चलते हुए साफ देखा जा सकता था। इतने में एक दूसरा लड़का बोल उठा, तब हिंदू मुसलमान सब बराबर थे। बस लाशों के ढेरों को जलाया और दफनाया जा रहा था। उफ! वह कितना खौफनाक मंजर था। तभी तीसरा लड़का बताने लगा, अरे वह बबली याद है? कैसे वह भैंसों के बीच दबी हुई थी और अल्लाह का शुक्र है कि वो जिंदा थी। जबकि सारी भैंसे मर चुकी थीं। फिर अदालत के फैसले की बात करते हुए वे कहने लगे, एंडरसन इतना पैसा दे चुका है, अब उसे क्या सजा होगी। उस दिन के बाद वह इधर दिखाई नहीं दिया वरना उसका निपटारा तो तभी कर देते। इतने में चाय बनाने वाली अम्मा अपना दर्द बांटने लगी। वह कहने लगी कि कुछ मुआवजा मिले तो हम बूढ़े लोगों का गुजारा हो। गुमटी के बाहर जिंदगी अपनी रफ्तार से चल रही थी। बच्चे और महिलाएं पानी के लिए लाइन में लगे हुए थे। इस बीच एक फेरी वाला आ गया और वे सूट देखने में व्यस्त हो गयीं।

यूनियन कार्बाइड कारखाने में आज सुरक्षा बढ़ा दी गयी थी। आम दिनों में यहां 30 सुरक्षाकर्मी होते हैं लेकिन आज इनकी तादाद लगभग 150 थी। ये कारखाने के अलग अलग दरवाजों पर खाटों पर आराम फरमाते हुए पहरेदार थे। हालांकि एएसआई वीके सिंह इस बात से इनकार करते हैं कि इतनी सुरक्षा आज ही बढ़ायी गयी है। उनके मुताबिक रोजाना इस कारखाने की सुरक्षा में इतने ही लोग रहते हैं। जबकि दो दिन पहले ही कारखाने के सुरक्षाकर्मियों ने मुझे बताया था कि यहां रोजाना 30 लोगों की ड्यूटी रहती है।

कैंची छोला में अपनी दो जून की रोटी के लिए राशन की लाइन में लगे लोग सार्वजनिक बात से बेखबर दिखाई दिये कि अदालत का कोई फैसला भी आने वाला है। उनके बीच पड़ोसियों के झगड़े और काम धंधे की बातें होती रहीं। लगभग यही हाल राजेंद्र नगर इलाके का भी रहा। हां, छोला फाटक से दस कदम की दूरी पर एक मिठाई की दुकान पर लोगों में उत्सुकता थी कि फैसला क्या हुआ। सवा बारह से साढ़े बारह बजे तक आने वाला हर आदमी पूछ रहा था क्यों क्या फैसला हुआ। कयास लगाये जा रहे थे, जुर्माना हुआ होगा। उनके पास सिर्फ इतनी खबर थी कि फैसला आ चुका है। वे टीवी पर पल पल की खबर देखना चाहते थे लेकिन मजबूर थे, बिजली नहीं थी।

रिसालदार कॉलोनी पहुंचते पहुंचते एक बज चुका था। गलियों में इक्का दुक्का लोग ही बैठे नजर आये। यहां भी आज का फैसला किसी बड़ी चर्चा का विषय नहीं बन पाया था। शब्बन चचा ने बताया कि लोगों में हल्की फुल्की बातें तो सुबह हो रही थीं कि आज फैसला आने वाला है। लेकिन उसके बाद सभी अपने अपने काम पर निकल गये। उनका कहना था कि जब कोई मुआवजा ही नहीं तो फिर किस बात का फैसला। वहीं रिसालदार कॉलोनी के सुमित की दुकान लड़कों का अड्डा बनी हुई है। इस दुकान पर कानूनी पेचीदगियों की बातें सुनने को मिलीं। वहां चर्चा हो रही थी कि सजा ज्यादा से ज्यादा तीन साल की हो सकती है। उसके बाद भी वे अपील कर सकते हैं। तो फैसला किस बात का। बस जल्दी से जल्दी मुआवजा मिलना चाहिए। वैसे भी समय निकलता जा रहा है, तो सजा का कोई मतलब नहीं रहा। इनके बीच भी बिजली न होने का अफसोस दिखाई दिया। अब सभी को एक साथ तीन चीजों का इंतजार था। दो बजने का, बिजली आने का और भोपाल के गुनहगारों को हुई सजा सुनने का।

3 comments:

  1. अच्छा लिखते हैं आप। पर अपने ब्लॉग को अपडेट भी तो करिए जनाब

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